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________________ mmmmmmmmATAWALARI ३२६ १ जैनहितैषी यहाँ प्रधानता है । शेष बाईस तीर्थकरोंने कठिनतासे निर्वाह करते हैं; क्योंकि वे अतिकेवल सामायिक चारित्रका प्रतिपादन किया शय वक्र स्वभाव होते हैं। साथ ही इन दोनों है। अस्तु । आदि और अन्तके दोनों तीर्थ- समयोंके शिष्य स्पष्टरूपसे योग्य अयोग्यकरोंने छेदोपस्थापन-संयमका प्रतिपादन क्यों को नहीं जानते हैं । इस लिए आदि और किया है ? इसका उत्तर आचार्य महोदय नीचे- अन्तके तीर्थमें इस छेदोपस्थापनाके उपकी दो गाथाओंमें इस प्रकार देते हैं:- देशकी जरूरत पैदा हुई है। यहाँ पर "आचक्खि, विभजिदूं यह भी प्रगट कर देना जरूरी है कि छेदोविण्णादु चावि सुहदरं होदि। पस्थापनामें हिंसादिकके भेदसे समस्त सावद्य एदेण कारणेण दु कर्मका त्याग किया जाता है। इस लिए महव्वदा पंच पण्णत्ता ॥३३॥ आदीए दुव्विसोधणे णिहणे छेदोपस्थापनाकी 'पंचमहावत ' संज्ञा भी तह सुट दुरणुपालेया। है और इसी लिए आचार्य महोदयने पुरिमाय पच्छिमा विहु गाथा नं० १३ में छेदोपस्थापनाका ‘पंचमहाकप्पाकप्पं ण जाणंति ॥३४॥", व्रत' शब्दोंसे निर्देश किया है । अस्तु । इसी टीका-"...... यस्मादन्यस्मै प्रतिपादयितुं तु ग्रंथमें, आगे प्रतिक्रमणका वर्णन करते हुए, स्वेच्छानुष्ठातुं विभक्तुं विज्ञातुं चापि भवति सुखतरं सामायिकं तेन कारणेन महाव्रतानि पंच प्रज्ञप्तानीति॥३३॥" "आदितीर्थे शिष्या दुःखेन शोधंते सुष्टु ऋजुस्वभावा “सपडिक्कमणो धम्मो यतः । तथा च पश्चिमतीर्थे शिष्या दुःखेन प्रतिपाल्यंते पुरिसस्सय पच्छिमस्स जिणस्त। सुष्टु वक्रस्वभावा यतः । पूर्वकालशिष्याः पश्चिमकाल अवराहपडिक्कमणं शिष्याश्च अपि स्फुटं कल्पं योग्यं अकल्पं अयोग्यं न मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ ७-१२५॥ जानंति यतस्तत आदौ निधने च छेदोपस्थानमुप जावेदु अप्पणो वा दिशत इति ॥ ३४॥" अण्णदरे वा भवे अदीचारो। अर्थात्पाँच महाव्रतों ( छेदोपस्था तावेदु पडिक्कमणं पना ) का कथन इस बजहसे कियागया है मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२६॥ इरिया गोयर सुमिणादि कि इनके द्वारा सामायिकका दूसरोंको उन सव्व माचरदु मा व आचरदु। देश देना, स्वयं अनुष्ठान करना, पृथक् पृथक् । पुरिम चरिमादु सवे रूपसे भावनामें लाना सुगम हो जाता है। सव्वे णियमा पडिक्कमादि ॥ १२७॥" आदि तीर्थमं शिष्य मुश्किलसे शुद्ध किये अर्थात्-पहले और अन्तिम तीर्थकरका जाते हैं; क्योंकि वे अतिशय सरल स्वभाव धर्म अपराधके होने और न होनेकी अपेक्षा होते हैं। और अन्तिम तीर्थमें शिष्यजन न करके प्रतिक्रमण सहित प्रवर्त्तता है। - इससे पहले टीकामें गाथाका शब्दार्थ मात्र पर मध्यके बाईस तीर्थकरोंका धर्म दिया है। अपराधके होनेपर ही प्रतिक्रमणका विधान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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