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जैनहितैषी
न्यास है और शायद जैनसाहित्यमें अबतक जितने उसी काव्यका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करके साहिउपन्यास लिखे गये हैं उन सबसे अच्छा है । त्यप्रसारक कार्यालयने हिन्दीमें एक अच्छे ग्रन्थरत्नकी इसका कथानक बिल्कुल कल्पित है और बौद्ध वृद्धि की है । अनुवाद बहुत ही अच्छा, शुद्ध और साहित्यकी एक कथाको परिवर्तन करके तैयार सरल हुआ है । पढ़ते समय ऐसा मालूम होता है कि किया गया है । बौद्धकथाके बुद्धदेव इसमें भगहम कोई अनुवाद नहीं किन्तु किसी कविकी वान् महावीर और बौद्ध उपासक माणभद्र श्रावक धारावाहिक स्वतंत्र रचना पढ़ रहे हैं । हम पहले मणिभद्र के रूप में चित्रित किये गये हैं। मणिभद्र,
1, नहीं जानते थे कि एक अजैन विद्वान्के द्वारा जैनरत्नमाला, सुभद्र आदिका स्वभावचित्रण बहुत काव्यका इतना अच्छा अनवाद हो सकेगा। इसमें अच्छा हुआ है । रचनामें अस्वाभाविकता बहुत ही कई प्रकरण ऐसे हैं जो जैनधर्मकी जानकारीके कम है। महावीर भगवानके महत्त्वकी बड़ी सावधानीसे
नास बिना अच्छी तरह नहीं समझे जा सकते, परन्तु रक्षा की गई है । वैदिक धर्मके विरोधकी अवतारणा
रणा हम देखते हैं कि अनुवादक उन स्थलोंको भी सफ
म करके भी लेखकने अपने हृदयकी विशालताके ।
एक लतापूर्वक पार कर गये हैं। इसके प्रकाशक पं. कारण कोई एक भी शब्द ऐसा नहीं आने दिया .
। उदयलालजी काशलीवाल अपने — वक्तव्य में है जो धार्मिक द्वेषकी सृष्टि करनेवाला हो और लिखते हैं कि यह अनुवाद हमने एक अजैन यह करके भी जैनधर्मके प्रति पाठकोंकी सविशेष विद्वानसे कराया है। कारण हमारे जैन विद्वानोंको श्रद्धा आकर्षित करनेमें लेखक समर्थ हुए हैं । एक तो बेचारी हिन्दीभाषा पर प्रेम ही नहीं, हिन्दीरत्नमाला और मणिभद्रका सम्बन्ध हृदयपर बहुत भाषामें कुछ लिखना मानो वे अपना अपमानसा ही गहरा प्रभाव डालता है। रत्नमालाके वचनोंसे समझते हैं । दसरे उनकी भाषा संस्कृतजटिल और सभद्र के समान और भी अनेक कामुक सुमागेगामी इतनी आडम्बरपूर्ण होती है कि उनसे इतना बन सकते हैं । पुस्तक सचित्र है । सुप्रसिद्ध चित्र- अ
अच्छा अनुवाद हो भी नहीं एकता था।" इस कार धुरन्धरके बनाये हुए तीन चित्रोंसे जो कथाके वक्तव्यके पहले भागसें हम सहमत नहीं । हमारी तीन प्रसंगोंके अनुकूल बना गये हैं-पुस्तक और समझमें अपराध क्षमा हो-संस्कृतज्ञ जैनपण्डित भी सुन्दर बन गई है । प्रारंभमें जो प्रस्तावना हिन्दी जानते ही नहीं है और इस कारण हिन्दी लिखी गई है. वह बडे विचारसे लिखी गई है लिखना उनके लिए अपमानका कारण है । यह
और उपन्यासके कई पात्रोंके चरित्रपर सविशेष बात नहीं है कि हिन्दी लिखनेको वे तुच्छ काम प्रकाश डालती है । मूल्य बारह आने । पृष्ठ समझते हों-समझते तो अच्छा काम है परन्तु करें संख्या १६०।
क्या, उसे जानते ही नहीं हैं और इसमें उनका ३ चन्द्रप्रभचरित। . कुछ अपराध भी नहीं है । जिन विद्यालयों और अनुवादक, पं० रूपनारायणजी पाण्डेय और पाठशालाओंमें पढ़कर वे विद्वान् होते हैं वहाँ प्रकाशक, हिन्दीजैनसाहित्यप्रसारक कार्यालय, हिन्दी सिखलानेका कोई भी प्रबन्ध नहीं है । वक्तबम्बई । पृष्ठ संख्या २०० । मूल्य एक रुपया। व्यका दूसरा अंश बहुत ठीक है। चन्द्रप्रभचरिजैनसाहित्यमें महाकवि वीरनन्दिकृत चन्द्रप्रभ- तका इतना अच्छा अनुवाद सचमुच ही किसी चरित बहुत ही अच्छा काव्य है। उसकी जोडके जैनपण्डितसे नहीं हो सकता और न अभी दो भावपूर्ण और प्रसादगुणविशिष्ट काव्यबहुत ही थोड़े हैं। चार वर्ष ऐसी आशा करनी चाहिए। हम अपने
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