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________________ SImmmmmmmmmmDA अहिंसा परमो धर्मः। ३९७ जो उचित कार्यका बाधक हो, उसके प्रति भी जातीय विकासको अवरुद्ध करनेकी स्वतन्त्रता पृणा रखते हैं । परन्तु हम उस दशामें चुप नहीं किसीको भी न मिलनी चाहिए । न बुद्ध और बैठ सकते जब एक उच्च एवं सम्मानित पुरुष न ईसाने ही कभी ऐसी शिक्षा दी है। मैं नहीं हमारे नवयुवकोंसे कहता है कि “ जो मनुष्य जानता कि कदाचित् जैन भी इस परिधि तक हमारे संरक्षणमें हैं उनके सम्मानकी-इज्जतकी पहुँचे होंगे। क्योंकि इन दशाओंमें मानसहित रक्षा करनेका मार्ग यह है कि हम अपनेको अत्या- जीवन बिताना असम्भव हो जायगा। जिस चार करनेवालोंके हाथों में दे देवें । क्योंकि यूँसे- मनुष्यका ऐसा विश्वास है, वह कभी लगातार बाजी करके सामना करनेकी अपेक्षा यह कहीं किसीका प्रतिरोध-जो अपनी इच्छानुसार बड़ा मानसिक एवं शारीरिक साहस है"। काम कर रहा हो-नहीं कर सकता । क्या हम मान लो कि कोई अत्याचारी हमारी पुत्री पर पूछ सकते हैं कि मि० गाँधीने द० एफ्रिकाके आक्रमण करता है । मि० गाँधीकी अहिंसा श्वेतांगोंका दिल-भारतवासियोंको देश बाहर कहती है कि अपनी पुत्रीकी मानरक्षाके निकालनेकी परम प्रिय नीतिके प्रतिकूल विरोध लिए केवल आक्रमणकारी और पुत्रीके बीच- खड़ा करके-क्यों दुखाया ? तर्कानुसार तो में खड़ा हो जाना ही ठीक है। किन्तु उस जैसे ही उस देशवालोंने उन्हें देशके बाहर दशामें क्या होगा, जब आक्रमणकारी हमको निकालनेकी आभिलाषा प्रकट की थी, वैसे ही गिरा कर अपनी पैशाचिक आभिलाषा पूरी करेगा? उन्हें अपना डेरा-डंडा उठाकर सम्मानपूर्वक मि. गाँधीके कथनानुसार इसकी अपेक्षा कि खसक आना था और ऐसा ही अपने देशवाअपने बलको उसके प्रतिरोधके लिए उपयोगमें सियोंसे करनेके लिए कहना उचित था । लावें, इसमें अधिक मानसिक एवं शारीरिक कारण ऐसी दशामें किसी भी प्रकारका विरोध साहसकी आवश्यकता है कि ऐसी दशामें भी हिंसाके बराबर ही हो जायगा; क्योंकि सब खड़ा रहे और उसे दुराचार करने दे। मि० प्रकारकी शारीरिक हिंसा केवल मानसिक गाँधीकी इस मान्यताके कुछ भी अर्थ हिंसाका ही विकसित रूप है। यदि किसी नहीं हैं । में मि० गाँधीके व्यक्तित्वका बहुत चोर, डाकू या शत्रुके दूषण पर विचार करना आदर करता हूँ । वे उन महात्माओंमें से एक मात्र पाप है, तो वास्तवमें उनका प्रतिरोध हैं जिनका मैं हदयमें ध्यान करता हूँ | मैं उन- करना उससे कहीं बड़ा पाप है। की सहृदयतामें सन्देह नहीं करता । मैं उनकी यह बात ऊपरी रूपहीमें ऐसी अनुपयुक्त प्रवृत्तियोंके सम्बन्धम प्रश्न नहीं करता । किन्तु है कि हमें मि. गाँधीकी स्पीचकी रिपोर्टकी इसको मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ कि में एक सत्यता पर सन्देह करनेकी प्रवृत्ति होती है । जोरदार प्रतिरोध उस अनर्थकारी उपदेशके परन्तु पत्रोंने स्वतंत्रतापूर्वक इसपर टीका टिप्पणी लिए उठाऊँ जिसके सम्बन्धमें उनके उस उपदे- की है और मि० गाँधीने भी इस समाचारके शके दिये जानेकी विज्ञप्ति दी गई है। प्रति कोई विरोध-पत्र नहीं प्रकाशित किया। __गाँधीको भारतके नवीन बच्चोंके मस्तिष्क- किसी दशामें भी, मुझे प्रतीत होता है कि मैं को ऐसे विषयकी शिक्षा देकर बिगाड़ने- चुपचाप नहीं बैठा रह सकता। जब तक स्पीचका कभी अधिकार न दिया जाना चाहिए। के आशयका संशोधन एवं पूर्ण कथन न हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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