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जैनतीर्थकरोंका शासन-भेद ।
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कि महावीर स्वामीसे पहले हिंसा, संचार होता है, कभी वक्र-जडताका और झूठ, चोरी और मैथुनादिक पापोंका कभी इन दोनोंसे अतीत अवस्था होती है। बहुत कुछ प्रचार था । वास्तवमें हिंसादिक किसी समयके मनुष्य स्थिरचित्त, दृढबुद्धि पाप भी हमेशासे हैं और उनके विरोधी व्रत और बलवान् होते हैं और किसी नियमादिकोंका अस्तित्व भी (किसी न कि- समयके चलचित्त, विस्मरणशील और सी रूपमें ) हमेशासे पाया जाता है । यह निर्बल । कभी लोकमें मूढ़ता बढ़ती है और दूसरी बात है कि कोई उन्हें थोड़ेहीमें कभी उसका ह्रास होता है । इस लिए जिस समझ लेता है और किसीके लिए उनका समय जैसी जैसी प्रकृति और योग्यविशेष खुलासा करनेकी जरूरत होती है। ताके शिष्योंकी-उपदेशपात्रोंकी-बहुलता कोई ‘रागादिक भावोंका उत्पन्न होना होती है उस समय उस वक्तकी हिंसा और उनका उत्पन्न न होना अहिंसा' जनताको लक्ष्य करके तीर्थकरोंका उसके इतने परसे ही हिंसा अहिंसाका अथवा पाप- उपयोगी वैसा ही उपदेश तथा वैसा ही सावद्य और व्रत-चारित्रका संपूर्ण रहस्य सम- व्रतनियमादिकका विधान होता है। झकर अपना आचरण यथेष्ट बना लेते हैं उसीके अनुसार मूलगुणोंमें भी हेर फेर
और किन्हींके वास्ते उनके भेद-प्रभदोंका हुआ करता है । परन्तु इस भिन्न प्रकारके बहुत कुछ तफसीलके साथ वर्णन करना उपदेश, विधान या शासनमें परस्पर उद्देश्यहोता है । यहाँ तक कि उन भेद-प्रभेदोंको भेद नहीं होता। समस्त जैनतीर्थकरोंका अलग अलग नियम करार देनेकी ( स्थापित वही मुख्यतया एक उद्देश्य 'आत्मासे करनेकी ) जरूरत पड़ती है और फिर उन कर्ममलको दूर करके उसे शुद्ध, सुखी नियमोंमें भी जिनका आचरण सर्वोपरि निर्दोष और स्वाधीन बनाना' होता है। प्रधान और अधिक आवश्यक जान पड़ता दूसरे शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि, है उन्हें मूलगुण करार दिया जाता है संसारी जीवोंको संसार-रोग दूर करनेके मार्ग
और शेषको उत्तर गुण, तब कहीं उनसे पर लगाना ही जैनतीर्थकरोंके जीवनका यथेष्ट आचरण बन सकता है। इसीसे सर्व प्रधान उद्देश्य होता है। अस्तु । एक रोगको समयोंके मूल गुण कभी एक प्रकारके नहीं दूर करनेके लिए जिस प्रकार अनेक ओषहोसकते । किसी समयके शिष्य संक्षेपप्रिय धियाँ होती हैं और वे अनेक प्रकारसे व्यवहोते हैं और किसी समयके विस्ताररुचि- हारमें लाई जाती हैं; रोगशांतिके लिए वाले । कभी लोगोंमें ऋजु जडताका अधिक उनमेंसे जिस वक्त जिस जिस ओषधिको
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