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________________ विविध प्रसङ्ग। १ लाला लाजपतराय और जैनधर्म। व्रत हैं उनमें जो दर्जा अहिंसाका है वही शेष पजाबके सुप्रसिद्ध देशभक्त लाला लाजपत- चारका अर्थात् सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और रायजीका नाम बहुत कम लोग ऐसे होंगे जो अपरिग्रहका है । यह नहीं कि श्रावकको सिर्फ न जानते हों। आप इस समय आर्यसमाजी हैं, अहिंसाका पालन करना ही जरूरी है सत्य आदिका पर आपका जन्म एक (स्थानकवासी ) जैन- नहीं, अथवा आहंसाके बराबर सत्य आदिकी कुलमें हुआ था-आपके पिता पितामह आदि पालना आवश्यक नहीं है। जैनसिद्धान्तके अनुसब जैनधर्मके अनुयायी थे । यह बात स्वयं स आपके लिखे हुए एक लेखसे प्रकट हुई है जो जिनका पालना प्रत्येक गृहस्थके लिए बहुत ही कलकत्तेके 'माडर्न रिव्य में प्रकाशित हुआ जरूरी है-उनमें ये पाँचों व्रत एक समान आवहै और जिसका अनुवाद हमने अन्यत्र उद्धृत श्यक हैं । एक सुप्रसिद्ध जैनाचार्यने एक अहिंकिया है । उक्त लेख मुख्यतः महात्मा गाँधीके सावतको ही आचारशास्त्रका मूल माना है और विचारोंको लक्ष्य करके लिखा गया है; परन्तु है । वे कहते हैं कि असत्य भी पाप इसी सत्य ब्रह्मचर्य आदिको उसके ही भेदोंमें गिनाया गौणरूपसे उसमें जैनधर्मकी अहिंसाकी आलो- - - कारण है कि उससे अपने या पराये प्राणोंकीचना भी की गई है। क्योंकि महात्मा गाँधीके * द्रव्य या भावरूप हिंसा होती है-उससे दूसरोंविचार जैनधर्मके आचार-शास्त्रांसे बहुत कुछ कोया अपनेको एक प्रकारका कष्ट पहुँचता है। मिलते-जुलते हैं । परन्तु हमारी समझमें लाला- इसी तरह परस्त्रीसेवन आदि भी हिंसाके कारण जीने सिर्फ जैनधर्मके वर्तमान स्वरूपकी-अहिंसा- हैं। गरज यह कि हिंसाको छोड़कर और कोई धर्मके उस अत्याचारकी-जो जैनधर्मके वर्तमान पाप ही नहीं है। परन्तु पापपुण्यकी इस विलक्षण अनयायियोंमें दृष्टिगोचर होता है और जिसमें व्याख्यामें भी जो साक्षात् अहिंसा है उसका दजा लोग जैनोंका नहीं किन्तु जैनसिद्धान्तका दोष सत्य या ब्रह्मचर्य आदि किसी भी व्रतसे बड़ा समझ लेते हैं-आलोचना की है। अहिंसाको नहीं है और इसी प्रकार छोटा भी नहीं है। वे सर्वोत्कृष्ट जीवनचर्या या चारित्र मानते हैं; परन्तु जैनधर्म यह नहीं कहता कि तुम हरितकायके उसके दुरुपयोग या अत्युपयोगको ही अच्छा नहीं जीवोंकी तो रक्षा किया करो और व्यवसाय समझते हैं। वे कहते हैं-कि अन्य सत्य आदि सद्गु- वाणिज्य आदिमें मनमाना असयवहार किया करो। णोंके समान यह भी एक सद्गुण है; यह नहीं कि पर वर्तमान जैनसमाजका चारित्र इसी ढंगका तमाम सद्गुणोंका शिरोमणि यही है और सच्चा- हो रहा है जैसा कि लालाजीने बतलाया है और रित्रकी कसौटी भी यही एक है । जैनसिद्धान्त इस प्रकारके एक नहीं हजारों उदाहरण दिये भी आपके इन विचारोंसे सहमत है। श्रावकोंके जा सकते हैं। पर यह दोष जैनसिद्धान्तका या जो पाँच अणुव्रत हैं या मुनियोंके पाँच महा उसके अहिंसा धर्मका नहीं है। ११-१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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