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________________ CATALABHILAILAB ILIB HUBALIHERD जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य । GiftifultifinitifittiiiiiiiiiitintifinitiinfiftITTER नहीं जान सकते । इस लिए हमारा कर्तव्य है एक सूचना करके इस लेखको समाप्त करते हैं । कि हम अपने साहित्यके साथ वैदिक और बौद्ध हमारे आधुनिक शिक्षा पाये हुए युवक केवल साहित्यका भी अभ्यास करें और किसमें कितना सामाजिक सुधारके विचारों के पीछे घुड़विशिष्टत्व है उसे ढूंढ निकालें । धार्मिक दौड़ कर रहे हैं, परन्तु उसके आगे बढ़नेका सिद्धान्तोंका यथार्थ रहस्य, तुलनात्मक दृष्टिसे कुछ भी प्रयत्न नहीं करते । जैनदृष्टिमें समाज अवलोकन करनेवालोंको जितना अवगत होता गौण और धर्म मुख्य है, इस विचारको हमने आज है उतना औरोंको नहीं । भगवद्गीताके रहस्योंका कल भुला दिया है । सामाजिक उन्नति कोई जैसा उद्घाटन, लोकमान्य श्रीबालगंगाधर तिल- हमारे आत्मिक कल्याणका अंग नहीं है, उसका कने किया है वैसा अन्य किसीने नहीं किया, अंग तो धार्मिक उन्नति है। यद्यपि हमारा व्यवऐसा जो एकाकार उद्घोष विद्वानोंके मुँहसे हार सुसंगत रखनेके लिए समाजकी संस्कृति निकल रहा है वह इसी पद्धतिके अभ्यास और हमें अभीष्ट अवश्य है तथापि केवल सामाजिक अवलोकनका फल है. । तिलक महाशयने सुधारहीसे धर्मको भी विशिष्टत्व आ जा अपने भगवद्गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र' यह विश्वास भ्रान्तिमूलक है। हमारा धर्म, सामानामक महान् ग्रंथमें कर्मविपाक व आत्मस्वातंत्र्य' जके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखता । यही नामका एक प्रकरण लिखा है जो जनकर्मवादके कारण है कि भगवान् महावीरने किसी भी अभ्यासीके लिए अवश्य अवलोकनीय है। प्रकारके सामाजिक नियमोंका नियमन नहीं ___ अब हम अपने नवशिक्षित जैनबंधुओंको ५क्षपणासार-इसके कर्ता आचार्य नेमिचग्रन्थका बहुत ही अधिक प्रचार है । यह प्राकृत न्द्रके समानकालीन माधवचन्द्र विद्यदेव हैं । यह भाषामें है। कनड़ी, संस्कृत और हिन्दीमें इसकी कई संस्कृत गद्यमें है । माधवचन्द्रकी बहुतसी गाथायें टीकायें बन चुकी हैं । इस ग्रन्थके कर्ता आचार्य गोम्मटसारमें भी शामिल हैं। नेमिचन्द्र हैं । सिद्धान्तचक्रवर्ती उनकी पदवी थी। पं. टोडरमल्लजीने गोम्मटसारकी जो विस्तृत विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दिके मध्य में वे मौजूद थे । भाषाटीका लिखी है उसमें लब्धिसार और क्षपणासार गंगवंशीय राजा राचमल्लके सुप्रसिद्ध मंत्री चामुण्डरा दोनोंही शामिल कर लिये गये हैं। यको अपने ग्रन्थमें उन्होंने जगह जगह आशीर्वाद । लब्धिसार क्षपणासारसहित छप रहा है। दिया है। इन्हीं चामुण्डरायके लिए कहते हैं कि यह ६ पंचसंग्रह-यह धर्मपरीक्षाके कर्ता आचार्य ग्रन्थ धवलादि ग्रन्थोंके आधारसे या उन्हींमेंसे संग्रह आमितगति वीतरागका बनाया हुआ है । विक्रम करके रचा गया है । इसके पहले भागका नाम जीव- . काण्ड और दूसरेका कर्मकाण्ड है। जीवकाण्डमें ७३३ संवत् १०७३ में इसकी रचना हुई है। अमितगति और कर्मकाण्डमें सब मिलाकर ९७२ गाथायें हैं । ईडरके भण्डारसे आई हई स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द. माथुर संघके आचार्य थे। इसकी एक प्रति हमने ये दोनों भाषाटीका सहित छप चुके हैं । इसका जीके यहाँ देखी थी और उसकी केवल प्रशस्ति लिख दूसरा नाम पंचसंग्रह भी है । क्योंकि इसमें कर्म- ली थी। यह संस्कृत भाषामें है और इसका विषय प्राभतके जीवस्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामी, वेदना. वही है जो गोम्मटसारका है। खण्ड और वर्गणाखण्ड इन पाँच विषयोंका वर्णन है। इनके सिवाय इस विषयके अन्य ग्रन्थोंसे हम ब्धिसार--यह ग्रन्थ भी आचार्य नेमि- अनभिज्ञ हैं । हाँ, ऐसे बहुतसे ग्रन्थ हैं जिनका मुख्य चन्दका बनाया हुआ है और प्रायः सर्वत्र मिलता है। विषय तो यह नहीं है, पर गौणरूपसे इसका खासा.. इसमें पाँच लब्धियों तथा उपशम और क्षपक श्रेणका विवेचन मिलता है । वर्णन है। इसकी सब मिलाकर ६५० गाथायें हैं। -सम्पादक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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