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________________ ४०२ MITRAKATIHATIONAIRIDIHATI जैनहितैषी द्रोही समझना चाहिए। हमारी समझमें जिन्हें दश लाख श्वेताम्बर दिगम्बर जैनोंमेंसेगाँधी और तिलक जैसे पुरुषरत्नोंमें विश्वास बड़े बड़े व्यापारकुशल, वयोवृद्ध और पढ़े नहीं है अथवा उनकी सम्मतिकी परवा नहीं है, लिखे जनोंमेंसे-एक मामूली और घरू झगउन्हें भारतवासी ही नहीं कहना चाहिए। डेको भी मिटानेवाला कोई पुरुष आगे नहीं ___ उक्त दोनों ही सज्जन धर्मात्मा हैं, मूर्तिपूजाको आता । समय ! तेरी बलिहारी ! भी मानते हैं और देशके गौरवको बढ़ानेके लिए अन्तमें, जिन जिनेन्द्रदेवकी पूजाके ठेकेके तो प्राणोंको हथेली पर लिये फिरते हैं । कानून- लिए यह सोनेकी नदी बहाई जा रही है, वे यदि का ज्ञान भी इन्हें जजोंकी अपेक्षा कम नहीं है थोड़ी देरके लिए मुक्तिपुरीका आनन्द छोड़कर और साथ ही सत्यके एकनिष्ठ सेवक होनेके सुन सकते हों, तो उनके चरणोंमें मेरी यह कारण किसी ओरको लुढ़क जानेवाले भी ये नहीं प्रार्थना है कि "हे भगवन् ! ऐसा समय ला दो हैं। दोनों ही सम्प्रदायके विचारवान सज्जनोंको कि हम अपने भाईयों और पुत्रोंसे तो हार जायँ-- इस विषयमें आन्दोलन करना चाहिए और इसे बुरा न समझें और अपने शत्रुओंको हरानेभाई भाईकी इस आपसी लड़ाईको मिटानका के लिए हर समय तैयार रहें-प्रकृत शत्रुओंको पुण्य सम्पादन करना चाहिए। हरानेमें ही अपना गौरव समझें ।" ___महात्मा गाँधी इतने उदार और निरभिमानी हैं कि उन्हें ऐसे कामोंके लिए आमंत्रणकी भी मनुष्यको बहतसा दुःख इस कारणसे होता है कि आवश्यकता नहीं रहती है। इस लिए मैं उनसे वह प्रायः सदा इसी बातकी चिंतामें रहता है कि आग्रहपूर्वक प्रार्थना करता हूँ कि हमारे जैन लोग मेरे विषयमें क्या कहते हैं । यह फिज़लका भाई यदि आपको बीचमें पड़कर न्याय कर स्याल है। इस ख्यालमें पागल बने रहना मूर्खता है। देनेके लिए आमंत्रण न करें, उनमें इतनी भी जरा सोचो तो कि तुम्हारे कामोंका जो कुछ वे कहते सुबुद्धि न रही हो, तो आपको स्वयं ही देशके हैं उससे कुछ सम्बंध भी है या नहीं। इसके अतिगौरवके लिए और देशकी एक प्रतिष्ठित कौमकी रिक्त यह भी निश्चय नहीं है कि वे तुम्हारे विषयमें अवनतिको रोकनेके लिए-स्वेच्छापूर्वक बीचमें कुछ कहेंगे भी या नहीं। कितने ही आदमी यह ख्याल पडनेकी कृपा करना चाहिए। करते रहते हैं कि हमारे कामोंकी दुनिया देख रही है, 'समयके फेरतें सुमेरु होत माटीको इस कथन परंतु उन्हें देखता कोई नहीं । वे सोचते हैं कि हरएक की सत्यता इस मामलेमें प्रत्यक्ष हो रही है। एक राहगीरकी हम पर दृष्टि पड़ती है, परंतु यह केवल ख्याल है । अस्तु मान लो कि यह ख्याल नहीं किन्तु ऐसा भी समय था जब गुजरातकी कीर्तिको दूर - सत्य है, वास्तवमें लोग तुम्हारे विचारों और कार्योंकी दूर तक फैलानेवाला और मुसलमानोंके प्रबल झूठी निंदा करते हैं और तुम्हारे विषयमें अनुचित आक्रमणोंके वेगसे माण्डलिक राजाओंके आपसी सम्मति रखते हैं। परन्तु इससे क्या ? किसीने टीक झगड़ोंके रहते भी गुजरातको बालबाल बचा कहा है कि दूसरेके बुरा कहनेसे तुम्हारा कुछ नहीं लेनेवाला पुरुष एक जैन था और वह पाटणका बिगड़ता। यदि तुम वास्तवमें निर्दोषी हो तो दूसरोंमंत्री मुंजाल था । यह २५-३० वर्षका युवा की कड़ी समालोचनासे तुम्हें उतनाही दुःख होना अनेक झगड़ों फसादों स्वार्थजालों और उपद्र- चाहिए जितना कि तुम्हें उस समय होता, जब कि वोंको बड़ी दूरदेशी और शक्तिसे दबा सकता था किसी ऐसे मनुष्यकी वही समालोचनाकी जाती जिससे और सारे गुजरातमें अमनचैन रख सकता तुम तनिक भी परिचित नहीं हो, अर्थात् तुम्हें रंच था और एक यह भी समय है जब आठ- मात्र भी दुःख नहीं होना चाहिए । (-हेल्प्स ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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