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________________ जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य । र्थसंग्रह, ३ प्रकृतिस्वरूपनिरूपण और ४ बंधस्वामित्व । इनके रचयिता आगमिक श्रीजयतिलकसूरि हैं जो विक्रमकी १५ वीं शताब्दीमें विद्यमान थे । इन ग्रन्थोंपर टीका-टिप्पण कुछ नहीं हुआ । इन ग्रंथोंके सिवा और छोटे छोटे बहुत से प्रकरण हैं; परंतु " हस्तिपदे सर्वे पादा निमग्नाः " न्यायानुसार उनमें सर्व विषयोंका, इन ग्रंथोंमें समावेश हो जानेसे, हम उनका उल्लेख नहीं करते और करनेका स्थल भी नहीं है । इस प्रकार श्वेताम्बर - साहित्य में कर्मविषयक ग्रंथ प्रसिद्ध और उपलब्ध हैं । इन ग्रंथोंकी कुलश्लोकसंख्या सवालाख के लगभग होगी । इतना ही साहित्य दिगम्बर - संप्रदायका भी है। गोम्मटसार आदि बड़े बड़े ग्रंथ दिगम्बर वाङ्मकी शोभा बढ़ा रहे हैं; परंतु हमको उन ग्रंथोंका विशेष हाल मालूम न होनेके कारण यहाँ पर उल्लेख नहीं किया जासका । कोई ज्ञाता उन ग्रंथोंकी क्रमवार सूची प्रकट करनेका प्रयत्न करेगा तो अवश्य प्रशंसाका पात्र गिना जायगा * । श्वेताम्बरीय कर्मग्रंथों में से बहुत * दिगम्बर सम्प्रदायके साहित्यमें जो कर्मविषयक अनेक ग्रन्थ हैं उनमेंसे कुछका परिचय नीचे कराया जाता है ग्रंथ १ महाकर्मप्रकृतिप्राभृत - इस ग्रन्थका परि चय इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में मिलता है । इसके छह खण्ड हैं, इसलिए इसे षट्खण्ड शास्त्र भी कहते हैं । इसके प्रारंभका कुछ भाग ( केवल १०० सूत्र ) आचार्य पुष्पदन्तका बनाया हुआ है और शेष भूतबलि आचार्यका । इसके जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध, बन्धस्वामित्त्व और भाववेदना ये पाँच खण्ड छह हजार श्लोक प्रमाण हैं और छट्ठा महाबन्धखण्ड तीस हजार श्लोकोंमें है। इस तरह यह सम्पूर्ण प्रन्थ लगभग ३६ हजार श्लोकों का है । इस महान् ग्रन्थकी कई बड़ी बड़ी टीकायें हैं । एक टीका कुण्डकुन्दपुर निवासी पद्मनन्दि ( कुन्द Jain Education International ३८१ छप गये हैं परंतु दिगम्बर साहित्यका इस विषयका गोम्मटसारको छोड़कर एक भी ग्रंथ अभी तक प्रकट नहीं हुआ । इस लिए तत्त्वरसिक और धर्मप्रेमी दिगम्बर बंधुओंका कर्तव्य है कि वे इस विषयसाहित्यको प्रकट करनेका विशेष उद्यम करें। कर्मतत्त्व के विषयमें दोनों संप्रदायोंका समान मत है । इसमें किसी प्रकारका विचारभेद नहीं है । इस लिए दोनों संप्रदायोंके विद्वाकुन्द ) आचार्य की है जो १२ हजार श्लोक प्रमाण है । यह केवल प्रारंभके तीन खण्डोकी है और प्राकृत भाषा में है । दूसरी टीका शामकुण्ड नामक आचार्यकी है । इसमें छद्रे महाबन्ध खण्डकी टीका नहीं की गई है। यह टीका लगभग छः हजार श्लोकोंमें है । तीसरी चूड़ामणि नामकी टीका तुम्बुलूराचाकी रची हुई है । यह प्राचीन कनड़ी भाषा में है और ५४ हजार श्लोकोंमें है । इसमें भी छहा महाबन्धा खण्ड छोड़ दिया गया है । छठे खण्ड पर इन्हीं आचार्यने एक जुदी ही पञ्जिका टीका बनाई है जो ७ हजार श्लोकों में है। चौथी टीका तार्किकसूर्य समन्तभद्राचार्यकी बनाई हुई है । यह आनन्द नामक नगर में रची गई थी । यह भी पहले पाँच खण्डोंकी है और 'अतिसुन्दर मृदुसंस्कृत' में लिखी गई है । इसकी श्लोकसंख्या ४८ हजार श्लोक है । व्याख्याप्रज्ञप्ति नामकी पाँचवीं टीका वप्पदेवगुरुकी बनाई हुई है । यह प्राकृत भाषामें है । यह दोनों प्राभृतोंकी ( कर्मप्राभृत और कषाय प्राभृतकी) संयुक्त टीका है और १४ हजार श्लोक प्रमाण है । इसमें से छट्ठे महाबन्ध खण्डकी श्लोकसंख्या आठ हजार है । इसकी रचना भीमरथी और कृष्णमेणा नामकी नदियों के बीच में बसे हुए उत्कलिका नामक ग्रामके समीप अगणबल्ली नामके ग्राममें हुई थी । छट्ठी टीकाका नाम धवला है । यह प्राकृत, संस्कृत और कनड़ीभाषामिश्रित टीका । इसकी श्लोकसंख्या ७२ हजार है । इसे आचार्य जिनसेनके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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