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________________ ब SATANTRIBITAMARHAALTALLLLLLBARABARIMAILER जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य । CumithfurnimittyETTmintummy ३७३ हमारे जैनीभाई हैं और शायद एक 'मुनि महाराज' FRASTARIANRARARAT इस कार्यके अनुमोदक हैं। अभी तक हमारा इस कार्यके अनुमोदक हैं। अभी तक हमारा जैनकर्मवाद और तद्विषयक ? खयाल था कि इस प्रकारकी पुस्तकें लिखनेमें 'आर्यसमाजी ' भाई ही सिद्धहस्त हैं। साहित्य । नीचे लिखी पुस्तकें धन्यवादपूर्वक KorupsexHULU स्वीकार की जाती हैं: (ले०-श्रीयुत मुनि जिनविजयजी।) १ जैनतत्त्वमीमांसा, २ जैनधर्मका हृदय, जैनधर्मकी दृष्टिमें इस जगतका कर्ता हर्ता ३ व्याख्यान मौक्तिक, कोई व्यक्तिविशेष नहीं है। संसारके अन्यान्य ४ अविद्यान्धकारमार्तण्ड । मुख्य धर्म जिस प्रकार किसी ईश्वर आदि शक्ति प्र.-आत्मानन्द-जैनट्रैक्ट-सोसाइटी,अम्बालाशहर द्वारा इस जगतका सर्जन और संहरणादि मानते ५ महाराणाप्रतापका वनवास, हैं वैसा जैनधर्मका सिद्धान्त नहीं है । जैन६ प्राचीन सभ्यताकी झलक । सिद्धान्त इस जगतका सर्वथा उत्पाद भी नहीं प्र.-पं० रामस्वरूपशर्मा, चन्दौसी यू. पी.। मानता और प्रलय भी नहीं । जैन-धर्म पर्याय७ हमारा कर्तव्य-प्र०, जैनकुमारसभा, झालरा- रूपसे विश्वको प्रतिक्षण परिवर्तनशील मान कर पाटन छावनी । भी द्रव्य-रूपसे इसे अनादि अनन्त और शास्वत ८ संसार और मोक्ष-प्र०, चन्द्रसेनजी जैनवैद्य, स्वीकारता है । इस लिए औरोंकी तरह इसको इटावा। जगत्कर्तृत्व-धर्मवाली ईश्वरादि व्यक्तिकी कल्पना ९ ज्ञानसूर्योदय-प्र०,मूंगासिंहजी जैन, कायम करनेकी आवश्यकता नहीं रहती । विश्वके जो गंज (फर्रुखाबाद)। १० हिन्दीजनशिक्षा ( चतुर्थ भाग )-प्र०, .विविध स्वरूप मनुष्योंको दृष्टि-गोचर हो रहे हैं जैनपुस्तकप्रचारकमण्डल रोशन मुहल्ला, आगरा। | और होते रहते हैं उनमें मुख्य कारण जीव . ११ सप्तव्यसननिषेध-प्र०, रावत शेरासिंघजी; और जड़की सम्मिलित-शक्ति ही है । इसी नैन स्कूल, बीकानेर । शक्तिके प्रभावसे सारे संसारमें प्रतिक्षण परिवर्तन १२ जीवविचार-प्र०, आत्मानन्दजैनपुस्तक. होता रहता है । जैनतत्त्वज्ञोंने इस शक्तिको प्रचारक मण्डल, नौवरा, देहली। 'कर्म ' संज्ञा दी है । कर्महीके कारण जग१३ देवाधिदेवरचना-प्र०, लालगुरुदत्तामल दासी जीव नानाप्रकारके सुख-दुःख प्राप्त करते जैन, पो० कसूर ( लाहौर )। रहते हैं और स्थल और सक्ष्म जीव-योनियों में १४ भाव आवश्यक-प्र०, पारेख मोहनलाल जन्म-मरण लिया करते हैं। प्राणियोंको शुभाशुभ अमृतलाल, राजकोट । कार्यमें प्रवृत्त करानेवाला भी केवल कर्म ही है १५ घृतके व्यापारी और उसके सुधारके उपाय राय- और किये हुए कृत्यका यथायोग्य फल देनेप्र०, आर. जेठाभाई नं०२१ पोलक स्ट्रीट कलकत्ता। . १६ भारतीय दृश्य-प्र०, विश्वनाथ ठाकुर, वाला भी कर्म ही है । आत्मा अपने ही किये थैकरस्टोर, मथुरा। हुए कर्मके प्रभावसे इष्ट पारितोषिक प्राप्त करता १७ श्रीगौतमपृच्छा-पता, मन्नालाल चोपड़ा, है और उसी कारण अनिष्ट दण्ड भी । स्वर्ग और नरक तथा मोक्ष और संसार, जीव अपने आप ही, कर्मद्वारा प्राप्त करता है। इनकी प्राप्तिमें रतलाम। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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