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(२) योगचिन्तामणिः। (पाकाधिकार:औषध और पथ्यरूप हैं ऐसे श्रीतीर्थकर तुमको लक्ष्मीके देनेवाले हों ॥ ३ ॥
श्रीसर्वज्ञ प्रणम्यादौ मानकीर्ति गुरुं ततः । योगचिन्तामणिं वक्ष्ये बालानांबोधहेतवे ॥४॥
श्री सर्वज्ञ मानकीर्ति गुरुको प्रथम प्रणाम कर बालकोंके बोधार्थ योगचिन्तामणि ग्रंथको कहते हैं ॥ ४ ॥
प्राप्ताः प्रसिद्धिं सर्वत्र सुखबोधाश्च ते यतः। अतः पुरातनैरेव पाठैः संगृह्यते मया॥५॥ सर्वत्र प्राप्त तथा प्रसिद्ध और सुखपूर्वक जाने जायँ इसी कारण हम प्राचीन पाठका संग्रह करते हैं ॥ ५ ॥
नूतनपाठे विहिते नादमिह पण्डिता यतः कुर्युः । तस्मादार्पवचाभिर्निबध्यते न त्वसामर्थ्यात् ॥ ६॥ नवीन पाठको विद्वान्लोग सत्कार नहीं करेंगे इसी कारण मैं प्राचीन सुश्रुत वाग्भटादि आच योंके वाक्योंका संग्रह करता हूं, कुछ नवीन ग्रन्थ रचनेकी असामर्थ्यसे नहीं करता ॥ ६॥
पाकचूर्णगुटीकाथघृततैलाः समिश्रकाः। अध्यायाः सप्त वक्ष्यन्ते ग्रन्थेऽस्मिन्सारसंग्रहे ७॥ इस ग्रन्थमें पाकाध्याय, चूर्णाध्याय, गुटिकाध्याय, काथाध्याय, घृताध्याय, तैलाध्याय, और मिश्रकाध्याय ऐसे सात अध्याय कहेंगे ॥ ७॥
यद्यपि योगचिन्तमणिके कर्ताने नाड़ी आदि परीक्षा पीछे लिखी है परंतु हमारी समझमें प्रथम लिखना ठीक है क्योंकि प्रथम रोग निश्चय करना सब आधुनिक और प्राचीन आचार्योंके मतसे ठीक है, इसी कारण हम अष्टविधि लिखते हैं तहाँ प्रथम वैद्यके कर्तव्य और नाडीपरीक्षा लिखते हैं
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