________________
प्रस्तावना
एक सदी बाद का है -- चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध में लिखा गया है। चौदहवीं सदी में ही राजशेखर तथा मेरुतुंग ने भी षड्दर्शनसमुच्चय तथा षड्दर्शननिर्णय नामक ग्रन्थ लिखे हैं । ६. सम्पादन-सामग्री
प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में प्रमुख आधारभूत हस्तलिखित प्रति श्री बलात्कारगण मन्दिर, कारंजा की (क्र. ६२९) है। इस में ५"४११" आकार के १८६ पत्र हैं। प्रतिपत्र ९ पंक्तियां तथा प्रतिपंक्ति २८ अक्षर हैं । यह प्रति शक १५३६ ( सन १६१५) में लिखी गई थी । भट्टारक कुमुदचन्द्र के उपदेश से उन के शिष्य ब्र. वीरदास के लिए जयतुर नगर (वर्तमान जिन्तूर, जि.परभणी) के सं.हीरासा चवरे ने यह प्रति अर्पित की थी। इस का लेखन प्रायः शुद्ध और सुवाच्य है। इस के समासों में विवरणात्मक टिप्पण हैं जो सम्भवतः ब्र. वीरदास ने अध्ययन के समय लिखे थे। ये टिप्पण हम ने प्रायः अविकल रूप से प्रत्येक पृष्ठ पर सारानुवाद के नीचे दिये हैं । कारंजा से यह प्रति हमें श्री. माणिकचन्द्रजी चवरे द्वारा प्राप्त हुई थी। ___ इस के अतिरिक्त हम ने दो और प्रतियों का अवलोकन किया। इन में एक श्री चन्द्रप्रभ मन्दिर, भुलेश्वर, बम्बई को (क्र. १६२) है। इस में ६"x१३" आकार के ८७ पत्र हैं। प्रतिपत्र १४ पंक्ति तथा प्रतिपंक्ति ४६ अक्षर हैं। इस का लेखनसमय ज्ञात नही है, कागज तथा लिपि से यह १५० वर्षों से अधिक पुरानी प्रतीत नही होती । लेखन सुवाच्य किन्तु पाठ बहुत अशुद्ध है। दूसरी प्रति श्री. माणिकचंद हीराचंद ग्रन्थभांडार, चौपाटी, बम्बई की (क्र. १३१) है। इस में ६"x१३" आकार के ८७ पत्र हैं । प्रतिपत्र १२ पंक्ति तथा प्रतिपंक्ति
१ भट्टारक कुमुदचन्द्र बलात्कारगण के कारंजा पीठ के आचार्य थे उन के ज्ञात उल्लेख शक १५२२ से १५३५ तक के हैं। उन्हों ने ब्र. वीरदास को दी हुई पंचस्तवनावचूरि की प्रति उपलब्ध है । ब्र. वीरदास का बाद का नाम पाश्वकीर्ति था। उन्हा ने शक १५४९ में मराठी सुदर्शनचरित लिखा । उन के उल्लेख शक १५६९ तक मिलते हैं (भट्टारक सम्प्रदाय पृ. ७२)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org