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विश्वतत्त्वप्रकाशः
उमास्वाति आचार्यके तत्वार्थसूत्र को भी दिया गया है इस में भ्रम न हो इसलिए सूचीपत्रों तथा हस्तलिखितों में प्रस्तुत ग्रन्थ को सिर्फ 'विश्वतत्त्वप्रकाश' कहा गया है ( हमारे मुख्य हस्तलिखित के समासों में 'विश्वतत्त्वप्रकाशिका' यह नाम अंकित है)। हम ने भी यही नाम उचित समझा है । पूज्यपाद आचार्य ने, सर्वार्थसिद्धि वृत्ति के मंगलाचरण में मोक्षमार्ग के उपदेशक तीर्थंकर को विश्वतत्त्वों का ज्ञाता कहा है ( ज्ञातारं विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये । ) इसी के अनुकरण पर सम्भवतः ग्रन्थ नाम का पहला अंश आधारित है। ग्रन्थनामों में प्रकाश शब्द का प्रयोग विशद स्पष्टीकरण के अर्थ में करने की पद्धति भी पुरातन है। जैन साहित्य में योगींन्दुदेव का परमात्मप्रकाश प्रसिद्ध है । जैनेतर साहित्य में महाराज भोजदेव का शंगारप्रकाश, क्षेमेन्द्र का लोकप्रकाश तथा मम्मट का काव्यप्रकाश भी प्रख्यात है । ५. ग्रन्थशैली
प्रतिपक्षी दर्शनों का क्रमशः विचार करने की शैली इस ग्रन्थ में अपनाई है। इस प्रकार का पहला व्यवस्थित ग्रन्थ हरिभद्रसूरि का षड्दर्शनसमुच्चय है । किन्तु इस में विभिन्न दर्शनों के मूलतत्त्वों का संग्रह ही है - उन का समर्थन या खण्डन नही है । इसी लिए उस का विस्तार भी सिर्फ ८७ श्लोकों जितना कम है। दूसरा ग्रन्थ विद्यानन्दकृत सत्यशासन परीक्षा है । इस में पुरुषाद्वैत, शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, न्यायवैशेषिक, मीमांसा, तत्त्वोपप्लव तथा अनेकान्त (जैन) दर्शनों का क्रमशः विचार किया है। यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है अतः उस की प्रस्तुत ग्रन्थ से तुलना सम्भव नही । तथापि भावसेन ने इसे ही आदर्श रूप में सन्मुख रखा होगा यह अनुमान किया जा सकता है । इस तरह का सुविख्यात ग्रन्थ माधवाचार्य का सर्वदर्शनसंग्रह है जिस में वेदान्त की दृष्टि से चार्वाकादि सोलह दर्शनों का क्रमशः विचार है । किन्तु यह ग्रन्थ भावसेन से कोई
१) अनेकान्त वर्ष ३ पृ. ६६० में पं. महेन्द्रकुमार का लेख. २) प्राभाकरमीमांसादर्शन के विचार में प्रस्तुत ग्रन्थ में जो पहला श्लोक हैं वह सत्यशासनपरीक्षा में भी पाया गया है । (अनेकान्त ३, पृ. ६६४). डॉ. उपाध्ये से मालूम होता है कि सत्यशासनपरीक्षा भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हो रही है।
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