Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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वे कुशल वक्ता भी थे। कैसे ही मंच पर वे आयें, श्रोता एकटक होकर उनके धारा प्रवाह भाषण को सुनते थे। उनके श्रोता हजारों या लाखों हों, उन्हें वे प्रभावित कर लेते थे। वे शास्त्र प्रवक्ता भी असाधारण थे। अष्टाह्निका पर्व पर वे बम्बई गये थे। एक दिन उन्होंने आत्मतत्व पर ऐसा प्रवचन किया कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो गये। शास्त्रप्रवचन के बाद एक श्रोता उनके पास पहुँचे और बोले कि पंडित जी ! आप को तो आत्म-साक्षात्कार हो गया होगा। पंडित जी ने बतलाया कि कोठिया जी मैं उसका क्या उत्तर देता? आत्म-तत्व पर बोलना अलग चीज है और उसका साक्षात्कार होना अलग चीज है। आत्म-साक्षात्कर के लिए पूर्ण संयम, इन्द्रिय-निग्रह, मनोनिरोध और तपश्चर्या आदि आवश्यक हैं। पंडित जी ने यह संस्मरण ज्यों का त्यों सुनाया। वास्तव में वे प्रभावक वक्ता थे।
वे कुशल अध्यापक और प्रभावक वक्ता के अतिरिक्त सुयोग्य लेखक भी थे। पत्रपत्रिकाओं में उनके शोधपूर्ण साहित्यिक और सामाजिक हजारों लेख-प्रकाशित हुए हैं । “जैन सन्देश" के तो वे यशस्वी लेखक और पत्रकार थे। वे आरम्भ से लेकर स्वस्थ अवस्था तक उसका निर्भीक सम्पादकीय लिखते रहे । कभी-कभी उनकी कटु आलोचना से लोग तिलमिला जाते थे। पर वह आलोचना गलत नहीं होती थी। 'निःसन्देह सन्देश' के सम्पादकीयों ने समाज का बहुत मार्ग दर्शन किया है ।
जैन धर्म उनकी ऐसी असाधारण कृति है जो सर्वाधिक लोकप्रिय हुई और जिसके कई संस्करण हो चुके हैं भारतीय अहिंसा, जैन न्याय, जैन साहित्य का इतिहास (३ भाग), करुणानुयोग प्रवेशिका, चरुणानुयोग प्रवेशिका, द्रव्यानुयोग प्रवेशिका आदि दर्जनों महत्वपूर्ण ग्रन्थों की श्रद्धेय पण्डित जी ने रचना की है। हमने ऐसे असाधारण विद्वान् को खो दिया यह कालगति है, जिसे कोई रोक नहीं सकता । वस्तुतः यह अपूर्णनीय क्षति है।
हम संघ परिवार, जैन-सन्देश के हजारों पाठकों और हजारों ही मित्र-गण तथा शिष्य समुदाय की ओर से उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए उनकी आत्मा को शाश्वत शान्ति-लाभ की कामना करते हैं एवं परिवार के प्रति हार्दिक संवेदना प्रकट करते हैं। .
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