Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

Previous | Next

Page 17
________________ एक निर्भीक एवं वरिष्ठ विद्वान् का निधन ___ डा० दरबारी लाल कोठिया* ____ दि० १७-११-१९८७ को जैन समाज के सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ विद्वान् श्रद्धेय पं० कैलाश चन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री का राँची (बिहार) में ८४ वर्ष की आयु में दुःखद निधन हो गया वे कुछ महीनों से अपने पुत्र श्री सुपार्श्व कुमार जैन के पास रुग्णावस्था में चल रहे थे। वे जब तक स्वस्थ्य रहे, उन्होंने तब तक वाराणसी नहीं छोड़ा। वहीं रहते हुए समाजसेवा और साहित्य साधना में निरत रहे । वे स्याद्वाद महाविद्यालय में धर्माध्यापक के रूप में सन् १९२६ में वाराणसी, नहटौर (विजनौर) से आये। बाद को वे उसी विद्यालय में सन १९३६ में प्राचार्य डा और १९५/ में उसके वे अधिष्ठाता भी चुने गये। वे इन दोनों पदों में रहते हुए १९७५ तक विद्यालय को सम्हालते रहे। इसके पश्चात् वे उसके अधिष्ठता रहे और अन्त तक वे इस पद पर रहते हुए विद्यालय की सेवा में तत्पर रहे। पर्युषण या अन्य पर्यों में समाज में अन्यत्र जाते थे तो उसके लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता लाते थे। उनके लिए स्याद्वाद महाविद्यालय स्वघोषित पत्र की तरह रहा । उसके संवर्द्धन और आर्थिक विकास में उनका अद्वितीय योगदान है। उनके मन में विद्यालय को छोड़कर किसी अन्य संस्था में जाने का कभी विकल्प नहीं आया और विद्यालय ने भी उन्हें नहीं छोड़ा। दोनों का अभेद्य सम्बन्ध था और वे उसे किसी अन्य इष्ट वस्तु से या अपने सगे बेटे से अधिक चाहते थे। वस्तुतः विद्यालय उनकी इस अगाध सेवा को कभी भूल नहीं सकता। पूज्य वर्णी जी कहा करते थे कि पं० कैलाश चन्द्र जी और स्याद्वाद महाविद्यालय पर्याय नाम है। एक दूसरे से एक दूसरे का बोध हुए बिना नहीं रहता। समाज में जितने विद्वान् हैं उनमें ८० प्रतिशत उन्हीं के शिष्य प्रशिष्य हैं। उनकी अध्यापन-कला अतिविशिष्ट थी। बड़े सरल ढंग से और धीरे-धीरे पढ़ाते थे, जिससे विद्यार्थी पढ़े हुए को हृदयंगम करता जाता था। धर्मशास्त्र का कोई कैसा ही स्थल हो उसे वे ऐसा समझाते थे कि विद्यार्थी सहज रूप में समझ लेता था। चाहे कर्मकाण्ड हो, चाहे त्रिलोकसार और चाहे तत्वार्थवार्तिक, सब में उनकी अस्खलित गति थी। हमें स्वयं इन ग्रन्थों का उनसे पढ़ने का अवसर मिला है। इससे हम कह सकते हैं कि वे बहुत ही कुशल अध्यापक थे । एक विशेषता उनकी यह थी कि वे दूसरे दिन के पठित पाठ को अवश्य पूछते थे, इससे विद्यार्थी और अध्यापक के पाठ को तैयार करे, या न करे, उनके पाठ को अवश्य तैयार करके ले जाता था। * संपादक, जैन संदेश, मथुरा (उ० प्र०), बीना ( म०प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 312