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२. दूसरे प्रस्तावमें " " भव्यपुरुप' सुन्दर मनुष्यभवको पाकर अपना वास्तविक हित जाननेकी इच्छा करता हुआ 'सदागम' को प्राप्त करेगा और उसके समीप रहेगा। फिर वह उसीके (सदागमके) द्वारा 'अगृहीतसंकेता' के व्याजसे सूचित किया हुआ संसारी जीवका तिर्यंचगतिसम्बन्धी चरित्र 'प्रज्ञाविशाला' के साथ सुनकर के विचार करेगा ।" इन सब बातोंका वर्णन किया जावेगा ।
३. तीसरे प्रस्तावमें "हिंसा और क्रोधके वशवर्ती होनेसे और स्पर्शनेंद्रियके कारण विवेकरहित होनेसे संसारी जीव दुखी होगा और अन्तमें मनुष्यजन्मसे भ्रष्ट होगा ।" यह सब वर्णन संसारी जीवके मुखसे ही निवेदन कराया जावेगा ।
४. चौथे प्रस्तावमें “संसारीजीव मान, असत्य और जिहा इन्द्रियके विषयमें रत होकर दुःखसे पीड़ित होता है और दुःखों से भरे हुए अनन्त तथा आपार संसार में वारंवार भ्रमण करता है ।" इन सत्र बातोंका विस्तार से वर्णन किया जायगा ।
५. पांचवें प्रस्तावमें संसारी जीव चोरी माया और नासिका इन्द्रियके विषयका विपाक ( नतीजा ) कहेगा ।
६. छठे प्रस्तावमें संसारी जीव लोभ, मैथुन और नेत्र इन्द्रियके विषयका परिणाम कहेगा, जो कि उसने पहले अनुभवन किया था ।
७. सातवें प्रस्ताव में महामोहकी सम्पूर्ण चेष्टाओंका तथा परिग्रह और कर्ण इन्द्रियके विपाकका वर्णन किया जायगा ।
तीसरेसे लेकर सातवें तक पांच प्रस्तावोंमें संसारी जीवका जो कुछ वृत्तान्त कहा जायगा, उसमेंसे कुछ तो उसका स्वयं सम्पन्न किया हुआ अर्थात् अनुभव किया हुआ है और कुछेक दूसरे पुरुषोंका कहा हुआ है । तथापि वह सत्र विश्वासके योग्य है, इसलिये जीवका ही कहा गया है ।
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