Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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निश्चित किया जा सकता है । चन्द्रमादि बिम्बों को गोलाद्धं रूप माना गया है जो वैज्ञानिक मान्यता से मिलता है क्योंकि आधुनिक यन्त्रों से प्रतीत होता है कि चन्द्रमादि सर्वदा पृथ्वी की ओर केवल बही अर्ब मुख रखते हुए विचरण करते हैं । उष्णतर किरणों और शीतल किरणों का क्या अभिप्राय हो सकता है, अभी तक स्पष्ट प्रतीत नहीं हुआ है । ग्रहों का गमन सम्बन्धी ज्ञान का कालवश विनष्ट होचा मजलाया गया है। पर महाजन प्रकार सूर्य और चन्द्र बिम्बों के गमन एकीकृत विधि से वीथियों के रूप में तथा मुहूर्त में ग्रोजन एवं गगनखण्डों के माध्यम से दर्शाये गये होंगे जो यूनान की प्राचीन विधियों तथा भारत की तत्कालीन वृत्त वीथियों के आधार पर पुनः स्थापित किये जा सकते हैं ऐसा अनुमान है।
पंडित नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य जैन ज्योतिष के सम्बन्ध में कुछ निष्कर्षों पर शोधानुसार पहुंचे थे जो निम्नलिखित हैं :
(क) पञ्चवर्षात्मक युग का सर्व प्रथम उल्लेख जैन ज्योतिष ग्रंथों में उपलब्ध होना । (ख) अवम-तिथि क्षय संबंधी प्रक्रिया का विकास जैनाचार्यों द्वारा स्वतन्त्र रूप से किया जाना।
(ग) जन मान्यता की नक्षत्रात्मक ध्रुवराशि का वेदांग ज्योतिष में वर्णित दिवसात्मक ध्र बराशि से मूक्ष्म होना तथा उसका उत्तरकालीन राशि के विकास में सम्भवतः सहायक होता ।
(घ) पर्व और तिथियों में नक्षत्र लाने की विकसित जैन प्रक्रिया, जैनेतर ग्रंथों में छठी शती के बाद दृष्टिगत होना।
(ङ) जैन ज्योतिष में सम्वत्सर सम्बन्धी प्रक्रिया में मौलिकता होना ।*
देखिये "ब अभिनन्दन ग्रंथ" सागर में प्रकाशित लेख, "भारतीय ज्योतिष का पोषक जन-ज्योतिष" १९६२, पृष्ठ ४७८ ४८४, उनका एक और लेख "ग्रीक-पूर्व जैन ज्योतिष विचारधारा". चंदाबाई मभिनन्दन ग्रंथ, पारा, १९५४, पृष्ट ४६२-४६६ में दृष्टव्य है।
वेदांग ज्योतिष में भी पञ्चवर्षात्मक युग का पंचांग बनता है, पर जो विस्तृत गगनखण्डों, बीषियों एवं योजना में गमन सम्बन्धी सामग्री जैन करणानुयोग के अन्थों में उपलब्ध है वह अन्यन्त्र उपलब्ध नहीं है।
*अयन के कारण विपुर्वाश में अन्तर पाता है जिससे ऋतुएँ अपना समय धीरे-धीरे बदलती जाती हैं। प्रयन के कारण होने वाले परिवर्तन को जैनाचार्यों ने संभवतः देखा होगा और अपना नया पंचांग विकसित किमा होगा। वेदांग ज्योतिष में माघ शुक्ल प्रघम को सूर्य नक्षत्र धनिष्ठा और चन्द्र नक्षत्र को भी धनिष्ठा लिया गया है जब कि सूर्य उत्तरापथ पर रहता था। किंतु जैन पंचांग ( तिलोपत्तो प्रादि) में जब सूर्य उत्सरापथ पर होसा था तब माघ कृष्णा सप्तमी को सूर्य प्रमिजित् नभत्र में प्रोर चन्द्रमा हस्त नक्षत्र में रहता था। अयन का ३६.. का परिवर्तन प्राय: २६००० वर्षों में होता दृष्टिगत हुप्रा है।