Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 411
________________ ३३४ ] [ गाथा : २५३-२५४ तिलोसपण्णत्ती भवनवासियोंमें उत्पत्तिके कारण जे केइ अण्णाण-तवेहि जुत्ता, णाणाविहुप्पाडिव-देह-दुक्खा । घेत्तूण सण्णाण-तवं पि पावा उज्झति जे दुविसयापसत्ता ।।२५३॥ विसुद्ध-लेस्साहि सुराउ-बंध 'काऊण कोहादिसु घाविवाऊ । सम्मत्त-संपत्ति-विमुक्क-बुद्धी जाति एदे भवरणेसु सव्वे ॥२५४।। अर्थ :-जो कोई अज्ञान-तपसे युक्त होकर शरीरमें नानाप्रकारके कष्ट उत्पन्न करते हैं, तथा जो पापी सम्यग्ज्ञानसे युक्त तपको ग्रहण करके भी दुष्ट विषयोंमें आसक्त होकर जला करते हैं, वे सब विशुद्ध लेश्याओंसे पूर्वमें देवायु बाँधकर पश्चात् क्रोधादि कषायों द्वारा उस प्रायुका घात करते हुए सम्यक्त्वरूप सम्पत्तिसे मनको हटा कर भवनवासियों में उत्पन्न होते हैं ॥२५३-२५४।। १. द. ब. कोअरण।

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