Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 409
________________ ३३२ ] तिलोयपण्णत्ती हि पि विजाणतो प्रष्णोष्णुप्पण्ण-पेम्म- मूळ सणा । कामंधा ते सव्वे गदं पि कालं ण जाणंति ॥ २४६ ॥ [ गाथा २४७-२४६ अर्थ :- अवधिज्ञानसे जानते हुए भी परस्पर उत्पन्न प्रेमसे मूढमनवाले मानसिक विचारोंसे युक्त वे सब देव कामान्ध होकर बीते हुए समयको भी नहीं जानते हैं ।। २४६ || वर-रयण-कंचणमये विचित्त-सयलुज्जलम्मि पासादे | काला गरु - गंध राग- णिहारणे रमंति सुरा ॥२४७॥ अर्थ :---वे देव उत्तम रत्न और स्वर्णसे विचित्र एवं सर्वत्र उज्ज्वल, कालागरुकी सुगन्धसे व्याप्त तथा रागके स्थानभूत प्रासादमें रमण करते हैं ।। २४७ || सयपाणि श्रासणाणि मउवारिण विचित्त- रूब- रइदारिं । तणु-मरण - नयणाणंदण - जणणाणि होंति देवाणं ॥ २४८ ॥ अर्थ : देवोंके शयन और श्रासन मृदुल, विचित्र रूपसे रचित तथा शरीर, मन एवं नेत्रोंके लिए आनन्दोत्पादक होते हैं || २४८ ॥ पास-रस- रूय' - सद्बुणि गंधेहि वढियाणि 'सोक्खाणि । 3 उबभुजंता देवा तिसि ण लर्हति णिमिसं पि ॥ २४६ ॥ अर्थ :- (वे देव ) स्पर्श, रस, रूप, सुन्दर शब्द और गन्धसे वृद्धिको प्राप्त हुए सुखोंका अनुभव करते हुए क्षणमात्र के लिए भी तृप्तिको प्राप्त नहीं होते हैं || २४६ ॥ १. द. क. ज. 5. रूववज्जूरिण गंधेहि, ब. रूवचक्र गंधेहि । २. द. ब. क. ज. ठ. सोज्जारिण । ३. द. ब. क. उवयंजुत्ता । ज. ठ. उत्रवयजुत्ता ।

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