Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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[ गाथा : २३८-२४१
तिलोय पण्णत्ती
रयणुज्जल- दीवेहि सुगंध-धूवेहि मणहिरामेहि । पक्केहि फणस - कदली- दाडिम- दक्खादि य फलेहि ॥ २३८ ॥
अर्थ :- वे देव दिव्य झारी, कलश, दर्पण, तीन छत्र श्रौर चामरादिसे; स्फटिक मणिमय दण्डके तुल्य उत्तम जलधाराओंोंसे; सुगन्धित गोशीर मलय-चन्दन और केशरके पङ्कोंसे मोतियों के समान उज्ज्वल शालिधान्यके खण्डित तन्दुलोंसे, दूर-दूर तक फैलनेवाली मत्त गन्धसे युक्त उत्तमोत्तम fafa प्रकारकी सैकड़ों फूल मालाओंसे अमृत से भी मधुर नानाप्रकारके दिव्य नैवेद्योंसे मनको श्रत्यन्त प्रिय लगनेवाले रत्नमयी उज्ज्वल दीपकों से सुगन्धित धूप से और पके हुए कटहल, केला, दाड़िम एवं दाख' आदि फलोंसे ( जिनेन्द्र देवकी ) पूजा करते हैं ।। २३५-२३८ ।।
पूजन के बाद नाटक
पूजाए श्रवसाणे कुरुते गाडयाइ विविहारं । पवरच्छराप-जुत्ता- बहुरस-मायाभिषेशाई
दादी
अर्थ :- ( वे देव ) पूजाके ग्रन्तमें उत्तम अप्सरानों सहित बहुत प्रकारके रस, भाव एवं भिसे विविध प्रकार के नाटक करते हैं ।। २३९ ।।
सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि देवके पूजन- परिणाममें अन्तर
णिस्सेस-कम्मक्क्क' हेदु ं मण्णतया तत्थ जिणंद-पूजं । सम्मत्त जुसा विरयंति रिगच्चं देवा महाणंद - विसोहि पुषं ॥ २४० ॥
कुलाहिदेवा इव ममाणा पुराण- देवाण पबोहणेण । मिच्छा-जुदा ते य जिरिंग- पूजं भक्त्तीए णिच्वं शियमा कुर्णति ।। २४१ ॥
अर्थ :- अविरत - सम्यग्दृष्टि देव, समस्त कर्मोके क्षय करनेमें एक अद्वितीय कारण समझकर नित्य ही महान् अनन्तगुणी विशुद्धिपूर्वक जिनेन्द्र देवकी पूजा करते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि देव पुराने
१. द. ब. क. ज. छ. क्खवहेदु । २. द. व. क. ज. अ. सम्मत्त विश्यं । ३. द. व. कुलाइदेवा | क. ज. द. कुलाई देवाई | ४ द. क. ज. ठ. भक्तीय |