Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

View full book text
Previous | Next

Page 408
________________ गाया : २४२-२४५ ] तदिन महाहियारी [ ३३१ देवोंके उपदेश से जिनप्रतिमाओं को कुलाधि देवता मानकर नित्य ही नियमसे भक्तिपूर्वक जिनेन्द्राचंन करते हैं ।। २४०-२४१ ।। जिनपूजा के पश्चात् कावूण दिव्य पूजं प्रागध्छिय निय-नियम्मि पासावे । सिंहासरणाहिरूदा 'अलग्गं देति देवा गं ॥ २४२ ॥ | अर्थ :- वे देव, दिव्य जिनपूजा करने के पश्चात् अपने-अपने भवन में श्राकर प्रोलगशाला ( परिचर्या गृह ) में सिंहासनपर विराजमान हो जाते हैं ।। २४२ || भवनवासी देवोंके सुखानुभव विविह - रतिकरण - भाविद विसुद्ध बुद्धीहि विव्य-रूहि । गाणा - विकुवां बहुविलास - संपत्ति जुत्ताह ॥२४३॥ मायाचार- विवज्जिद-पर्यादि-पसण्णाहि अच्छराहि समं । णिय- णिय- विभूवि-जोग्गं संकप्प- वसंगदं सोक्खं ॥ २४४ ॥ पड़-पह पहुवीहि सत्त सराभरण - महर - गीदेहि I यर - ललिव-गच्चह देवा भुजंति जयभोगं ।। २४५ ।। अर्थ :- ( पश्चात् वे देव ) विविध रूपसे रतिके प्रकटीकरण में चतुर, दिव्य रूपोंसे युक्त, नाना प्रकार की विक्रिया एवं बहुत विलास - सम्पत्तिसे सहित तथा मायाचारसे रहित होकर स्वभावसे ही प्रसन्न रहने वाली अप्सराओोंके साथ अपनी-अपनी विभूतिके योग्य एवं संकल्पमात्र से प्राप्त होने वाले सुख तथा उत्तम पटह आदि वादित्र, सप्त स्वरोंसे शोभायमान मधुर गीत तथा उत्कृष्ट सुन्दर नृत्यका उपभोग करते हैं ।।२४३-२४५।। १. [ श्रलगसालम्मि ]

Loading...

Page Navigation
1 ... 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434