Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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गाथा : २०७-२०६ ] विदुओ महाहियारो
दसमंस चउत्थस्स य जेट्ठाऊ सोहिऊण णव-भजिदे । पाउस्स पढम-भूए' णायचा हाणि-बड्ढीयो ।२०७॥
अर्थ :-पहली पृथिवीके चतुर्थ पटल में जो एक सागरके दसवें भाग-प्रमाण उत्कृष्ट प्रायु है, उसे पहली पृथिवीस्थ नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुमेंसे कम करके शेषमें नौ का भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतना, पहली पृथिवीके अवशिष्ट नौ पटलोंमें प्रायुके प्रमाणको लानेके लिए हानि-वृद्धिका प्रमाण जानना चाहिए । ( इस हानि-वृद्धिके प्रमाणको चतुर्थादि पटलोंको आयुमें उत्तरोत्तर जोड़ने पर पंचमादि पटलोंमें प्रायुका प्रमाण निकलता है ) ॥२०७॥ रत्नप्रभा—पृ० में उत्कृष्ट प्रायु एक सागरोपम है, अतः १ -
सागर हानि-वृद्धिका प्रमाण हुआ।
सायर-उवमा इगि-बु-ति-चउ-पण-छस्सत्त-अद-रणव-बसया। बस-भजिदा रयरगप्पह-तुरिमिदय-पहुदि-जेट्ठाऊ ॥२०॥
२।२०। । । ५ । । । । । ।
अर्थ :- रत्नप्रभा पृथिवीके चतुर्थ पंचमादि इन्द्रकोंमें क्रमशः दससे भाजित एक, दो, तीन, चार, पौंच, छह, सात, आठ, नौ और दस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट प्रायु है ।।२०।।
भ्रान्तमें सागर; उद्भ्रान्तमें 20 संभ्रान्तमें ; असंभ्रान्तमें ; विभ्रान्तमें ; तप्तमें १४; असितमें ; वक्रान्तमें 42; अवक्रान्तमें हैं और विक्रान्त इन्द्रक बिल में उत्कृष्टायु या १ सागर प्रमाण है।
आयुकी हानि-वृद्धिका प्रमाण प्राप्त करनेका विधान उरिम-खिदि-जेट्ठाऊ सोहिय' हेट्ठिम-खिदीए जेटुम्मि ।
सेसं णिय-णिय-इंदय-संखा-भजिदम्मि हारिण-वड्ढीयो ।२०६॥
अर्थ :--उपरिम पृथिवीकी उत्कृष्ट प्रायुको नीचेको पृथिवीको उत्कृष्ट प्रायुमेंसे कम करके शेषमें अपने-अपने इन्द्रकोंकी संख्याका भाग देनेपर जो लब्ध पावे, उतना विवक्षित पृथिवीमें आयुकी हानि-वृद्धिका प्रमाण जानना चाहिए ।।२०६।।
१. द. ब. ज.क., पढमभाए।
२. क. ब. ज. क. 8. सोहस ।