Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोयपगती
[ गाथा : २१५-२१६ अर्थ :-मघवी पृथिवीके तीन पटलोंमें नारकियोंकी उत्कृष्टायु क्रमशः तीनसे भाजित छप्पन, इकसठ और छयासठ सागरोपम है 11२१४।। हिममें 1; वर्दसमें और लल्लंकमें - या २२ सागर प्रमाण उत्कृष्टायु है ।
सत्तम-खिदि-जीवाणं पाऊ तेत्तीस-उवहि-परिमाणा । उवरिम-उपकस्साऊ 'समय-जुदो हेलिमे जहणं खु ॥२१॥
अर्थ :-सातवीं पृथिवीके जीवोंकी आयु तैतीस सागरोपम प्रमाण है। ऊपर-ऊपरके पटलोंमें जो उत्कृष्ट प्रायु है, उसमें एक-एक समय मिलानेपर वही नीचेके पटलोंमें जघन्यायु हो जाती है ॥२१॥
अवधिस्थान नामक इन्द्रककी प्रायु ३३ सागरोपम प्रमाण है। श्रेणीबद्ध एवं प्रकीर्णक बिलोंमें स्थित नारकियोंकी प्रायु एवं सम-खिदीणं पत्तवक इंदयारण जो प्राऊ । सेढि-विसेढि-गदाणं सो चेय पइण्णयाणं पि ॥२१६॥
एवं ग्राऊ समत्ता ॥३॥ प्रर्थ:--इसप्रकार सातों पृथिवियोंके प्रत्येक इन्द्रक में जो उत्कृष्ट प्रायु कही गई है, वहीं वहाँक श्रेणीबद्ध और विश्रेणीगत (प्रकीर्णक) बिलोंकी भी भायु समझना चाहिए ॥२१६।।
इसप्रकार प्रायुका वर्णन समाप्त हुप्रा ॥३॥
१. द. ठ. समग्रो जुदो, ब. क. ज. समउ-जुदो। २. द. २० । ३३ ।। ब. २२ । ३३ ।