Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोय पण्णत्ती
[ गाथा : १२८ - १३२
अर्थ :- ( वे सब देव ) स्वर्णके समान, मलके संसर्गसे रहित निर्मल कान्तिके धारक, सुगन्धितनिश्वास से संयुक्त, अनुपम रूपरेखा वाले समचतुरस्र नामक शरीर संस्थानवाले लक्षणों और व्यंजनोंसे युक्त, पूर्ण चन्द्र सदृश सुन्दर महाकान्ति वाले और नित्य ही ( युवा ) कुमार रहते हैं, वैसी ही उनकी देवियाँ होती हैं ।।१२६-१२७॥
रोग-जरा-परिहीणा स्पिरुषम-बल-वीरिएहि परिपुण्णा । भारत-पाणि-चरणा कदलीघादेण परिचत्ता ।। १२८ ॥
वर - रयण-मोडधारी' वर - विविह-विभूसणेहि सोहिल्ला । मंसट्टि - मेध - लोहिद-मज्ज बसा' - सुक्क परिहोणा
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कररुह केस - विहीणा णिरुवम लावण्ण-विति परिपुष्णा । बहुवि विलास - सत्ता देवा देवीओ ते होंति ॥ १३० ॥
अर्थ :- वे देव देवियाँ रोग एवं जरासे विहीन, अनुपम बल-वीर्यसे परिपूर्ण, किंचित् लालिमा युक्त हाथ-पैरोंसे सहित कदलीघात ( अकालमरण ) से रहित, उत्कृष्ट रत्नोंके मुकुटको धारण करनेवाले, उत्तमोत्तम विविध प्रकार के आभूषणोंसे शोभायमान, मांस- हड्डी - मेद- लोहू-मज्जावसा और शुक्रादि त्रातुनोंसे विहीन, हाथोंके नख एवं बालोंसे रहित घनुपम लावण्य तथा दीप्तिसे परिपूर्ण और अनेक प्रकार के हाव भावों में प्रासक्त रहते ( होते ) हैं ।। १२८-१३० ।।
सुरकुमार आदिकों में प्रवीचार
असुरादी भवणसुरा सन्वे ते होंति काय पविचारा । वेदस्सुदीरणाए प्रणुभवणं * माणुस - समाणं ॥१३१॥
॥ १२६॥
अर्थ : – वे सब असुरादिक भवनवासी देव काय- प्रवीचारसे युक्त होते हैं तथा वेदनोकषायकी उदोरणा होनेपर वे मनुष्यों के समान कामसुखका अनुभव करते हैं ।। १३१ ।।
धादु-विहीणत्तादो रेद-विणिग्गमणमत्थि ण हु ताणं । संकष्प- सुहं जायदि वेदस्स उदीरणा विगमे ॥१३२॥ ।
१. ब. मेडधारी । २. द. मंसति । ३ द. क. ज ठ वसू ।
५. द. न. वेदसुदीरय। ए ।
६. द. व. क. ज. ठ. भाग्यस
द. ब. के. ज. ठ. पडियारा।