Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 403
________________ ३२६ ]. तिलोयपण्णत्ती विभागज्ञान उत्पत्ति देवी-देव-समुहं दणं तस्स विम्हओ होदि । तक्काले उष्पज्जदि विब्भंगं योव-पच्चवखं ।।२१७।। [ गाथा : २१७-२२० अर्थ :- उन देव देवियोंके समूहको देखकर उस नवजात देवको प्राश्चर्य होता है, तथा उसी समय उसे प्रत्यक्षरूप प्रल्प-विभंग-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है ।।२१७॥ नवजात देवकृत पश्चाताप माणुस - रिच्च भवम्हि पुचे लद्धी ण सम्मत्त मणी' पुरुवं । तिलप्यमाणस्स सुहस्स कज्जे चत्तं भए काम विमोहिदेण ॥२१८॥ अर्थ :- मैंने पूर्व काल में मनुष्य एवं तिर्यच भवमें सम्यक्त्वरूपी मरिणको प्राप्त नहीं किया और यदि प्राप्त भी किया तो उसे कामसे विमोहित होकर तिल प्रमाण अर्थात् किंचित् सुखके लिये छोड़ दिया ।।२१८ ।। जिणोवदिद्वागम-भासणिज्जं देसव्यदं गेरिहय सोक्ख-हेतु । मुक्कं मए दुव्विसयत्यमप्पस्सोक्खाणु-रसेण विचेदणेण ॥ २१६ ॥ अर्थ :- जिनोपदिष्ट आगम में कथित वास्तविक सुखके निमित्तभूत देशचारित्रको ग्रहण करके मेरे जैसे मूर्खेने अल्प सुखमें अनुरक्त होकर दुष्ट विषयोंके लिये उसे छोड़ दिया ॥ २१६ ॥ प्रपंत' णाणादि- चउक्क हेदु णिवारण- बीजं जिणणाह-लिंगं । पभूब- कालं धरितॄण चतं मए मयंधेण बहू-निमित्तं ॥ २२० ॥ अर्थ :- अनन्तज्ञानादिचतुष्टयके कारणभूत और मुक्तिके बीजभूत जिनेन्द्रनाथके लिंग ( कलचारित्र) को बहुत कालतक धारण करके मैंने मदान्ध होकर कामिनीके निमित्त छोड़ दिया ॥ २२० ॥ १. द. ब. क. अ. ठ मरणे । २. द. ब. क. ज ठ ण्ड्य । ३. द. ब. क. ज. व पाणारिए ।

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