Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोयपणाती
[ गाथा : ३७-४० या विनाश नहीं होता है, किन्तु चैत्यवृक्षोंके पृथिवीकायिक जीवोंका पृथिवीकायिकपना अनादि-निधन नहीं है । अर्थात् उन वृक्षोंमें पृथिवीकायिक जीव स्वयं जन्म लेते तथा आयुके अनुसार मरते रहते हैं, इसीलिए चैत्यवृक्षोंको जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशका कारण कहा गया है। यही विवरण चतुर्थअधिकारकी गाथा १६०८ और २१५६ में तथा पांचवें अधिकार की गाथा २६ में पायगा।
चैत्यवृक्षोंके मूलमें-स्थित जिन प्रतिमाएँ चेत्त-छम मूलेसु पत्तेक्कं घउ-दिसासु पंचेव । चेट्ठति जिणपडिमा पलियंक-ठिया सुरेहि महणिज्जा ॥३७।। चउ-तोरणाहिरामा अनु-महा-पंगतेहि सोहिल्ला । वर-रयण-रिपम्मिदेहिं मारपत्थंभेहि अइरम्मा ॥३॥
॥ वेदी-वण्णणा गदा ।।११।। अर्थ : चैत्यवृक्षों के मूल में चारों दिशाओंमेंसे प्रत्येक दिशामें पद्मासनसे स्थित और देवोंसे पुजनीय पाँच-पाँच जिनप्रतिमायें विराजमान हैं, जो चार तोरणोंसे रमणीय, अष्ट महामंगल द्रव्योंसे सुशोभित और उत्तमोत्तम रत्नोंसे निर्मित मानस्तम्भोंसे अतिशय शोभायमान हैं ॥३७-३८।।
।। इसप्रकार वेदियोंका वर्णन समाप्त हुआ ॥११॥
वेदियोंके मध्यमें कूटोंका निरूपण वेवीणं बहुमज्झे जोयण-सयमुचिछदा महाकूडा ।
वेत्तासण-संठाणा रयणमया होंति सन्वदा ॥३६॥ अर्थ :-वेदियोंके बहुगध्य भागमें सर्वत्र एकसौ योजन ऊँचे, वेत्रासनके प्राकार और रत्नमय महाकूट स्थित हैं ॥३६।।
ताणं मले उरि समतदो दिव-वेदोनो ।
पुबिल्ल-वैदियाणं सारिच्छे वणणं सन्वं ॥४०॥ अर्थ :-उन कूटोंके मूलभागमें और ऊपर चारों ओर दिव्य वेदियाँ हैं । इन वेदियोंका सम्पूर्ण वर्णन पूर्वोल्लिखित बेदियों जैसा ही समझना चाहिए ।।४।।