Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
View full book text
________________
गाथा : ३३६-३४४ ]
विदुप्रो महायिारो
[ २५७
अंगोवंगट्ठीणं चुपणं काढूण चंड-घादेहि । विउप-वणाणं मझे छुहति बहुखार-दवाणि ।।३३६॥ जह चिलवयंति करुणं 'लग्गते जइ विचलण-जुगलम्मि।
तह विह सणं खंडिय छहंति चुल्लीसु रणारइया ॥३४०॥ अर्थ :-अन्य नारको उन नारकियोंके अंग और उपांगोंको हड्डियोंका प्रचंड घातोंसे चूर्ण करके विस्तृत घावोंके मध्यमें क्षार-पदार्थोंको डालते हैं, जिससे वे नारकी करुणापूर्ण विलाप करते हैं और चरणोंमें या लगते हैं, तथापि अन्य नारकी उसी खिन्न अवस्थामें उन्हें खण्ड-खण्ड करके चूल्हेमें डाल देते हैं ।।३३९-३४०।।
लोहमय-जुबइ-पडिमं परदार-रदाण' गाढमंगेसु ।
लायंते अइ-तत्तं खिवंति जलणे जलतम्मि ॥३४१॥ अर्थ :-परस्त्रीमें प्रासक्त रहने वाले जीवोंके शरीरों में अतिशय तपी हुई लोहमय युवतीको मूर्तिको दृढ़तासे लगाते हैं और उन्हें जलती हुई पागमें फेंक देते हैं ।।३४१॥
मंसाहार-रदाणं णारइया ताण अंग-मंसाइं ।
छेत्तूण तम्मुहेसु छुहंति रुहिरोल्लरूवाणि ॥३४२॥
अर्थ :-जो जीव पूर्व भवमें मांस-भक्षणके प्रेमी थे, उनके शरीरके मांसको काटकर अन्य नारकी रक्तसे भीगे हुए उन्हीं मांस-खंडोंको उन्हींके मुखोंमें डालते हैं ॥३३९।।
महु-मज्जाहाराणं णारइया तम्मुहेसु अइ-तत्तं ।
लोह-दव घालते विलीयमाणंग-पम्भारं ॥३४३॥ अर्थ:-मधु और मद्यका सेवन करने वाले प्राणियोंके मुखोंमें नारकी अत्यन्त तपे हुए द्रवित लोहेको डालते हैं, जिससे उनके संतप्त अवयव-समूह भी पिघल जाते हैं 11 ३४३॥
करवाल-पहर-भिण्णं कूव-जलं जह पुणो वि संघडवि । तह णारयाण अंग छिज्जतं विविह-सत्थेहि ॥३४४॥
२. द. परदार-रदारिण।
३. ज. ठ. मुहु।
४ ब.
१. द. मसंगते, व.क. ज. 3. मंगते । सोहदव्यं । ५. द. विविइ-सत्तेहिं ।