Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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व्यवहार पल्य से संख्या का प्रमाण, उद्धारपल्य से द्वीप समुद्रादि का प्रमाण और अद्धापल्य से कर्मों की स्थिति का प्रमाण लगाया जाता है । यहाँ गाथा १०२ श्रादि निम्न माप निरूपण दिया गया है जो अंगुल और अंतत: योजन को उत्पन्न करता है :अनन्तानन्त परमाणु द्रव्य राशि
= १उवसनासन्न स्कन्ध ८ जवसनासन्न स्कन्ध
= १ सप्तासन्न स्कन्ध ८ सम्नासन्न स्कन्ध
= १ श्रुटिरेणु स्कन्ध ५ त्रुटिरेणु स्कन्ध
= १ असरेणु स्कन्ध प्रसरेणु स्कन्ध
= १ रथरेणु स्कन्ध ८ रथरेणु स्कन्ध
= १ उत्तम भोगभूमि का बालाग्र ८ उत्तमभोग भूमि बालाग्न
= १ मध्यम भोगभूमि बालाग्न ८ मध्यम भोगभूमि बालान
= १ जघन्य भोगभूमि बालाग्र ८ जघन्य भोगभूमि बालान === १ कर्मभूमि बालाग्र ८ कर्मभूमि बालान
= १ लीक ८ लीके
म१जी ८ जौ
= १ अंगुल उपर्युक्त परिभाषा से प्राप्त अंगुल, सूज्यंगुल कहलाता है जिसकी संदृष्टि २ का अंक मानी गयी है । इस अंगुल को उत्सेध अंगुल भी कहते हैं जिससे देव मनुष्यादि के शरीर को ऊँचाई, देवों के निवासस्थान व नगरादि का प्रमारण जाना जाता है । पांच सौ उत्सेधांगुल प्रमाण अवपिणी काल के प्रथम भरत चक्रवर्ती का एक अंगुल होता है जिसे प्रमाणांगुल कहते हैं जिससे द्वीप समुद्रादि का प्रमाण होता है । स्व स्व काल के भरत ऐरावत क्षेत्र में मनुष्यों के अंगुल को प्रात्मांगुल कहते हैं जिससे झारीकलशादि की संख्या का प्रमाण होता है । प्रश्न यहाँ आर्यिकाश्री विशुद्धमतीजी ने उठाया कि तिलोयपण्णत्ती में जो द्वीप समुद्रादि के प्रमाण योजनों और अंगुल प्रादि में दिये गये हैं उससे नीचे की इकाइयों में परिवर्तन कैसे किया जाय क्योंकि वे प्रमाणांगुल के प्राधार पर योजनादि लिये गये हैं और उक्त योजन से जो अंगुल उन्पन्न हो उसमें क्या ५०० का गुणनकर नीचे को इकाइयाँ प्राप्त की जाएँ ? वास्तव में जहाँ जिस अंगुल की आवश्यकता हो, उसे ही लेकर निम्नलिखित प्रमाणों का उपयोग किया जाना चाहिये :
६ अंगुल=१ पाद; २ पाद= १ वितस्ति; २ वितस्ति-१ हाथ; २ हाथ-१ रिक्क; २ रिक्यू. = १ दण्ड ; १ दण्ड या ४ हाथ = १ धनुष - १ मूसल= १ नाली;