Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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१८० ]
तिलोयपण्णत्ती
चालीसं लक्खाणि इगिंदाल सहस्स छस्सय छासट्ठी ।
दोहि कला ति-विहत्ता वासो 'संभंत - णामम्मि ॥ ११३ ॥
४०४१६६६ ।
अर्थ :—सम्भ्रान्त नामक छठे इन्द्रकका विस्तार चालीस लाख, इकतालीस हजार, छहसी छवास योजन और एक योजनके तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है ।। ११३ ।।
विशेषार्थ : --- ४१३३३३३१ – ९१६६६ ४०४१६६६ योजन विस्तार सम्भ्रान्त नामक छठे इन्द्रक बिलका है।
[ गाथा : ११३ ११६
विशेषार्थ :- ४०४१६६६३ नामक सातवें इन्द्रक बिलका है ।
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उदाल लक्खाfरंग पण्णास सहस्स - जोधणाणि पि । होदि प्रसंभविंदय - वित्थारो पदम पुढवीए ।। ११४ ॥
३१५००००।
अर्थ :- पहली पृथिवीमें असम्भ्रान्त नामक सातवें इन्द्रकका विस्तार उनतालीस लाख पचास हजार योजन प्रमाण है ।। ११४ ।।
१६६६३ = ३६५०००० योजन विस्तार सम्भ्रान्त
प्रट्ठत्तीसं लक्खा अडवण्ण- सहस्स-लि-सय-तेत्तीसं |
एक्क - कला ति-वित्ता वासो विभंत - गामम्मि ।। ११५ ।।
३८५८३३३३ ।
अर्थ :- विभ्रान्त नामक आठवें इन्द्रकका विस्तार भड़तीस लाख, अट्ठावन हजार तीनसौ तैंतीस योजन श्रोर एक योजनके तीन भागों मेंसे एक भाग प्रमाण है ।। ११५ । ।
विशेषार्थ :- ३६५०००० - ६१६६६३ = ३८५८३३३३ योजन विस्तार विभ्रान्त नामक आठवें इन्द्रक बिलका है ।
१. द. क. ज. ठ समंत | २. द. क. बासट्टि
सगतीसं लक्खाणि 'छासट्टि - सहस्स छ सय छासी ।
दोणि कला तिय-भजिदा रुंदी तत्तिवये होदि ॥ ११६ ॥ |
३७६६६६६ ।