Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
View full book text
________________
१७८ ]
[ गाथा : १०७-१०६
तिलोसपात्ती इच्छित इन्द्रकके विस्तारको प्राप्त करनेका विधान
विदियादिसु इच्छंतो रूऊरिणच्छाए गुणिद-खय-वड्ढी । सोमंतादो 'सोहिय मेलिज्ज सुअवहि-ठाणम्मि' ॥१०७॥
अर्थ :-द्वितीयादिक इन्द्रकोंका विस्तार निकालने के लिए एक कम इच्छित इन्द्रक प्रमाणसे उक्त क्षय और वृद्धि के प्रसाणको गुग्गा करनेपर जो गुणनफल प्राप्त हो उसे सीमन्त इन्द्रकके विस्तारमें से घटा देनेपर या अवधिस्थान इन्द्र कके विस्तारमें मिलानेपर अभीष्ट इन्द्रकका विस्तार निकलता है ॥१०७॥
विशेषार्थ :--प्रथम सीमन्त बिल और अन्तिम अवधिस्थानकी अपेक्षा २५ वें सप्तनामक इन्द्रकका विस्तार निकालने के लिए क्षय-वृद्धिका प्रमाण ९१६६६३४ (२५–१)= २२०००००; ४५०००००-२२००००० = २३००००० योजन सीमन्त बिलकी अपेक्षा । ६१६६६७४ (२५-१) = २२०००००; २२०००००+१०००००=२३००००० योजन अवधिस्थानकी अपेक्षा तप्त नामक इन्द्रकका विस्तार प्राप्त होता है ।
पली पृथिवीके तेरह इन्द्रकोंका पृथक्-पृथक् विस्तार रयरगप्पह-अवरणीए सीमंतय-इंदयस्य वित्थारो। पंचत्तालं जोयग-लक्खाणि होदि पियमेणं ॥१०८।।
४५०००००
अर्थ :--रत्नप्रभा पृथिवीमें सीमन्त इन्द्रकका विस्तार नियमसे पैतालीस लाख (४५०००००) योजन प्रमाण है ।।१०८।।
चोदाल लक्खाणि तेसोदि-सयाणि होति तेत्तीसं । एक्क-कला ति-विहत्ता रिपर-इंक्य-रुद-परिमाणं ॥१०६।।
४४०८३३३ । पर्थ :--निरय (नरक) नामक द्वितीय इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण चवालीस लाख, तेरासी सौ सैंतीस योजन और एक योजनके तीनभागोंमेंसे एक-भाग है ॥१०९।।
१.द.ब. क. ज. ठ, सेढीम।
२. व, ठाणं। ३.द. बादाललक्खाणि ।