Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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गाथा : १०४.१०६ ] विदुप्रो महाहियारो
[ १७७ सातवीं पृथिवीमें प्रकीर्णक बिल नहीं हैं। संख्यात एवं प्रसंख्यात योजन विस्तार वाले नारक बिलोंमें नारकियोंकी संख्या
संखेज्ज-वास-जुत्ते णिरय-बिले होंति णारया जीवा ।
संखेज्जा णियमेणं इदरम्मि तहा असंखेज्जा ॥१०४।। अर्थ :-संख्यात योजन विस्तारवाले नरकबिलमें नियमसे संख्यात नारकी जीव तथा असंख्यात योजन विस्तारवाले बिल में असंख्यात ही नारकी जीव होते हैं ॥१०४।।
इन्द्रक बिलोंकी हानि-वृद्धिका प्रमाण पणदालं लक्खारिंग पढमो चरिमिवनो वि इगि-लक्खं । उभयं सोहिय एक्कोणिदय-भजिदम्मि हारिप-चयं ॥१०॥
४५००००० । १००००० छावट्ठि-छस्सयाणि इगिणउदि-सहस्स-जोयणारिण पि । दु-कलापो ति-विहत्ता परिमाणं हारिण-बड्ढीए ॥१०६॥
अर्थ :-प्रथम इन्द्रकका विस्तार पैतालीस लाख योजन और अन्तिम इन्द्रकका विस्तार एक लाख योजन है । प्रथम इन्द्रकके विस्तारमेंसे अन्तिम इन्द्रकका विस्तार घटाकर शेषमें एक कम इन्द्रक प्रमाणका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे उतना (द्वितीयादि इन्द्रकोंका विस्तार निकालनेके लिए) हानि और वृद्धिका प्रमाण है ।।१०५।।
__ इस हानि-वृद्धिका प्रमाण इक्यानवै हजार छह सौ छयासठ योजन और तीनसे विभक्त दो कला है ॥१०६।।
विशेषार्थ :- पहली पृथिवीके प्रथम सीमन्त इन्द्रक बिलका बिस्तार मनुष्य क्षेत्र सदृश अर्थात् ४५ लाख योजन प्रमाण है और सातवीं पृ० के अवधिस्थान नामक मन्तिम बिल का विस्तार जम्बूद्वीप सदृश एक लाख योजन प्रमाण है । इन दोनोंका शोधन करनेपर (४५०००००-१०००००) =४४००००० योजन अवशेष रहे। इनमें एक कम इन्द्रकों (४६-१=४८) का भाग देनेपर (४४०००००-४८) = ६१६६६० योजन हानि और वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है।