Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोयपण्णत्ती
[ माथा : १८६-१८८ सातवें नरकमें श्रेणीबद्धोंका अन्तराल णवणउदि-सहिय-णव-सय-ति-सहस्सा जोयणारिण एक्क-कला । ति-हिदा य माघबीए सेढीयद्वाण विच्चालं ॥१८६।।
जो ३९६६ ।। अर्थ :-माधवी पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल तीन हजार नौ सौ निन्यानबै योजन और एक योजनके तीसरे-भाग प्रमाण है ।।१८६।।
विशेषार्थ :-सातवीं पृथिवीकी मोटाई ८००० योजन है और श्रेणीबद्धोंका बाहल्य यो० है। इसे ८००० यो० बाल्यमेंसे घटाकर प्राधा करनेपर अन्तरालका प्रमाण प्राप्त होता है। यथा-८००-=k४०९:-x="३" योजन अर्थात् ३६६६) यो० सातवीं पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल है।
धर्मादिक-पृथिवियोंमें श्रेणीबद्ध बिलोंके परस्थान अन्तरालोंका प्रमाण
सट्ठाणे विच्चालं एवं जाणिज्ज तह परट्ठाणे । जं इंदय-परठाणे' भणिदं तं एत्थ वत्तन्वं ॥१८७॥ णवरि विसेसो एसो लल्लंकय-प्रवहिठाण-विच्चाले। 'जोयर-छब्भागूणं सेढीबद्धाण विच्चालं ॥१८॥
। सेढीबद्धारा विच्चालं समत्त । अर्थ : यह श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल स्वस्थानमें समझना चाहिए ! तथा परस्थानमें जो इन्द्रक बिलोंका अन्तराल कहा जा चुका है, उसीको यहाँभी कहना चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि लल्लंक और अवधिस्थान इन्द्रकके मध्यमें जो अन्तराल कहा गया है, उसमेंसे एक योजनके छह भागोंमेंसे एक-भाग कम यहाँ श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल जानना चाहिए ।।१७-१८८।।
विशेषार्थ :- गाथा १८० से १८६ पर्यन्त श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल स्वस्थानमें कहा गया है । तथा गाथा १६४ एवं १६५ में इन्द्रक बिलोंका जो परस्थान (एक पृथिवीके अन्तिम और अगली पृथिवीके प्रथम बिलका ) अन्तराल कहा गया है, वही अन्तराल श्रेणीबद्ध बिलोंका है । यथा
१. द. क, ज. ठ. इंदयपरणाणे, ब. ईदयवरठाणे। २. द ब. जोयण्या५ । ३. ब. सम्मत्त ।