Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १६१-१६३ अर्थ :-- इसके पश्चात् अाधाराजू कापिष्टके ऊपरी भागमें, प्राधा राजू महाशुक्रके ऊपरी भागमें और प्राधारा सहस्रारके ऊपरी भाग में समाप्त होता है ।।१६०।।
। राजू ३।३।। तत्तो य श्रद्ध-रज्जू प्राणद-कप्पस्स' उपरिम-पएसे । स य पारणस्स कप्पस्स उबरिम-भागम्मि विज्जं ॥१६॥
अर्थ :-- इसके अनन्तर अर्ध (3) राजू पानतस्वर्गके ऊपरी भागमें और अर्ध (3) राजू पारण स्वर्गके ऊपरी भागमें पूर्ण होता है ॥१६१॥
गेवेन्ज रणवाणुद्दिस पहुडीयो होंति एक्क-रज्जूबो । एवं उबरिम-लोए रज्जु-विभागो समुट्ठिो ॥१६२।।
१
अर्थ : तत्पश्चात् एक राजूकी ऊँचाईमें नौवेयिक, नौअनुदिक्ष और पाँच अनुत्तर विमान हैं । इसप्रकार ऊर्ध्वलोकमें राजूका विभाग कहा गया है ।।१६२॥
कल्प एवं कल्पातीत भूमियोंका अन्त णिय-णिय-चरिमिवय-धय-दंडग्गं कप्पभूमि-अवसाणं ।
कप्पादोद-महीए विच्छेदो लोय-किचरणो ॥१६३॥
अर्थ :--अपने-अपने अन्तिम इन्द्रक ध्वज-दण्डका अग्रभाग उन-उन कल्पों ( स्वर्गों ) का अन्त है और कल्पातीतभूमिका जो अन्त है वह लोकके अन्तसे कुछ कम है ।।१६३।।
विशेषार्थ :-ऊर्ध्वलोक सुमेरुपर्वतकी चोटीसे एक बाल मात्रके अन्तरसे प्रारम्भ होकर लोकशिखर पर्यन्त १०००४० योजन कम ७ राजू प्रमाण है, जिसमें सर्वप्रथम ८ युगल ( १६ स्वर्ग ) हैं, प्रत्येक युगलोंका अन्त अपने अपने अन्तिम इन्द्रकके ध्वजदण्डके अग्रभागपर हो जाता है। इसके ऊपर अनुक्रमसे कल्पातीत बिमान एवं सिद्धशिला आदि हैं । लोकशिखरसे २१ योजन ४२५ धनुष नीचे कल्पातीत भूमिका अन्त है और सिद्धलोकके मध्यकी मोटाई ५ योजन है अतः कल्पातीत भूमि
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१. द. ब. क. कप्प सो। २. क. ब. गेवज्ज। ३. द. क. ब. ज. ठः ततो उबरिम-भागे गावाणु४. द. क. ज. 8. विरुदेवो ।
त्तरमो।