Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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शास्त्र के अर्थ को ग्रहण करने एवं धारण करने में समर्थ नाना प्रकार से उज्ज्वल और निर्मल विनय से संपन्न शीलमाला के धारक, देश, कुल और जाति से विशुद्ध अर्थात् उत्तम कुल और जाति में उत्पन्न समस्त कलाओं में पारंगत दो महान् साधुओं को वेणानदी के तट से भेजा ।
उस समय दक्षिण में तमिलनाडु - आन्ध्र, कर्नाटक और केरल के रूप में विभाजित नहीं था । चारों मिलकर द्राविड़ देश के रूप में था। इस के उदाहरण में जान सकते हैं कि भगवान् महावीर का समवसरण ५६ देशों में विहार करते हुए द्रविड़ देश में आया था, न कि आन्ध्र, कर्नाटक आदि देशों में ।
अतः वे दोनों आचार्य द्राविड़ से निकलकर धरसेनाचार्य के सान्निध्य में पहुंचे । आचार्य धरसेन को दोनों मुनिवरों ने विनयपूर्वक नमोस्तु किया । आचार्य महाराज ने दोनों को आशीर्वाद देकर कुशल समाचार पूछे । उन साधुओं को उचित स्थान में बिठाने के बाद यंत्र-तंत्र-मंत्र आदि में पारंगत धरसेनाचार्य ने आगत साधुओं की परीक्षा लेनी शुरु की। बात यह थी कि उन साधुओं को कुछ मंत्र देकर विद्या साधने की आज्ञा दी थी। आजकल कतिपय लोग प्रश्न करते हैं कि साधुओं को मंत्र-तंत्र की क्या आवश्यकता है ? उससे आत्म-कल्याण तो होता नहीं है, न ही वह व्यावहारिक है । मंत्र-तंत्र की साधना में समय व्यतीत करना व्यर्थ है । उन लोगों को यह विवरण पाठ सीखाता है कि साधुओं को सभी विषयों में जानकार होना अत्यन्त आवश्यक है ।
आचार्य महाराज के कथनानुसार दोनों साधुओं ने मंत्र-विद्या साधना प्रारंभ की। उसमें से एक मंत्र अधिक अक्षर वाला था और दूसरा हीन अक्षर वाला था । उन दोनों साधुओं ने गुरु की आज्ञा से उपवास के साथ भगवान् नेमिनाथ की निर्वाण स्थली पर जाकर विद्याओं को साधना शुरु किया । जब उनकी विद्याएँ सिद्ध हो गई तो उन विद्याओं की अधिष्ठात्री देवियों को देखा, कि 'एक देवी के दांत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है ।' 'विकृतांग होना देवताओं का स्वभाव नहीं है'। इस पर दोनों ने विचार किया । वे दोनों मंत्र संबन्धी व्याकरण - शास्त्र में कुशल थे। फिर उन दोनों ने हीन अक्षरवाली विद्या में अधिक अक्षर मिलाकर और अधिक अक्षरवाली विद्या में से अक्षर निकालकर मंत्र को सिद्ध किया । जिससे वे दोनों विद्या-देवियाँ अपने स्वभाव से सुन्दर रूप के साथ दृष्टिगोचर हुई । उन दोनों देवियों ने साधुओं से कहा कि 'आज्ञा दीजिये' उनके उत्तर में साधुओं ने कहा कि हम लोगों ने गुरु की आज्ञा मात्र से मंत्र का अनुष्ठान किया है। हमें किसी तरह की आवश्यकता नहीं है । उत्तर सुनकर दोनों देवियाँ अपने स्थान को चली गई। इस तरह का 'श्रुतावतार' में वर्णन है ।
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