Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 166
________________ निर्ग्रन्थ मुनिवर कल्पवनिता आर्यिका हैं सोहती । ज्योतिषी व्यन्तर भवन की देवियां मन मोहती ।। भवन व्यन्तर ज्योतिषी अरु कल्पवासी देव हैं | मनुज पशु सब जिन चरण में झुक रहे सिर टेक हैं ।। श्री मण्डप की भूमि के मध्य वैडूर्य भूमि निर्मित प्रथम पीठिका हैं । उस पीठिका पर अष्ट मंगलद्रव्य भृंगार, ताल, कलश, ध्वज, स्वस्तिक, छत्र, दर्पण, चमर, और यक्षराज के मस्तक पर स्थित हजार आरों वाला धर्मचक्र हैं । प्रथम पीठिका के ऊपर स्वर्ण निर्मित दूसरी पीठिका है उसके ऊपर चक्र, गज, वृषभ, कमला, वस्त्र, सिंह, गरुड़ और माला चिन्ह से युक्त निर्मल ध्वाजाएं हैं । I तीसरी पीठिका पर तीन छत्र से शोभित, मणिमय वृक्ष के नीचे सिंहासन पर अन्तरिक्ष जिनेन्द्र भगवान स्थित रहते हैं। इस समवसरण सभा में बीस हजार सीढ़ियां रहती हैं । भगवान् के दोनों तरफ चौसठ चमर दुलते हैं । भगवान के पीठ पीछे रात दिन के भेद को नष्ट करने वाला भामंडल है । अमृत के समुद्र सदृश निर्मल भामण्डल रूप दर्पण में सुर-असुर तथा मानव अपने सात सात भव देखते हैं । केवल ज्ञान होते ही जिनेन्द्र देव में अतिशय होते हैं योजन शत इक में सुभिख गगन गमान मुख चार । नहि अदया उपसर्ग नहीं, नाहि कवलाहार ॥ सब विद्या ईश्वर पनो, नाहि बढ़े नख केश । अनिमिष द्दग छाया रहित दस केवल के वेश ।। समवशरण में विराजमान तीर्थंकर भगवान के केवलज्ञानोत्सव की पूजा करने व भगवान के दर्शन करने के लिए ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो इन्द्र इन्द्राणी अपने सब परिवार के साथ आते हैं और चतुर्निकाय के देवों के साथ दिव्य वस्तुओं के द्वारा जिनदेव की भक्ति पूर्वक पूजा करते हैं I समवशरण में स्थित प्रभु की प्रभातकाल, मध्याहूनकाल, सायंकाल तथा मध्यरात्रि में छह-छह घड़ी तक दिव्य वाणी सर्वांग से खिरती है। भगवान की वाणी को गणधर झेलते हैं । प्रभु की दिव्यवाणी में सप्त तत्वों का कथन होता है जिसको सुनकर भव्यजीव सन्तुष्ट होते हैं तथा अनेक प्रकार के व्रत, नियम, संयम धारण कर आत्मकल्याण करते हैं । तीर्थंकर प्रभु अपने विहार के विभिन्न देशों को पवित्र करते हैं । विहार के समय देवगण प्रभु के चरण-कमलों के नीचे दो सौ स्वर्णमय कमलों की रचना करते हैं। इस प्रकार केवलज्ञानोत्पत्ति के समय इन्द्र द्वारा समवशरण रचना होना, केवल ज्ञान की पूजा होना, दिव्यध्वनि के द्वारा असंख्य जीवों का कल्याण होना आदि सब केवलज्ञान कल्याण महोत्सव हैं । तीर्थंकर भगवान से विभिन्न देशों में जिनधर्म की अपूर्व प्रभावना करते हुए, धर्मोपदेश की वर्षा करते हुए अन्त में समवशरण स्वरूप बहिरंग लक्ष्मी का त्यागकर अपनी अनन्त चतुष्टय रूप अन्तरंग लक्ष्मी में सुशोभित होते हुए योगों का 131 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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