Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 169
________________ भाव हिंसा और द्रव्य-हिंसा की तरह परिग्रह में भी भेद करना चाहिए। पदार्थों के साथ मन में लगाव रखना, उनके व्यामोह की मूर्च्छा में खो जाना भाव-परिग्रह है। मनचाही वस्तुओं का स्वामित्व प्राप्त कर लेना, उन पर काबिज हो जाना द्रव्य परिग्रह या भौतिक परिग्रह है । भौतिक परिग्रह मेरा बना रहे और भीतर से उसकी लोलुपता छूट जाये ऐसा कभी नहीं हो सकता । इसीलिए ब्राह्य परिग्रह का त्याग साधक के लिए अनिवार्य है। अंतरंग में जितना ममत्व-भाव हो इतने पदार्थ मिल ही जायें, ऐसा नियम तो नहीं हैं, परन्तु बाहर जितना हमने जोड़कर, संजोकर रखा है, जिसकी रक्षा के लिए हम दिन-रात चिंतित हैं, नियम से उसकी ममता हमारे भीतर होगी। धान का ऊपरी मोटा छिलका चढ़ा रहे और भीतर का महीन लाल छिलका उतर जाए यह कैसे संभव है ? परिग्रह परिमाण - अणुव्रत में विक्षेप उत्पन्न करने वाले पांच अतिचार हैं अतिविस्मय, अतिलोभ और अति भारवाहन । इनकी व्याख्या इस प्रकार होगी १. अधिक लाभ की आकांक्षा में शक्ति से अधिक दौड़-धूप करना । दिन-रात उसी आकुलता में उलझने रहना और दूसरों से भी नियम-विरुद्ध अधिक काम लेना अतिवाहन 1 २. अधिक लाभ की इच्छा से उपभोक्ता वस्तुओं का अधिक समय तक संग्रह करके रखना । अर्थात् अधिक मुनाफाखोरी या जमाखोरी की भावना रखकर संग्रह करना अतिसंग्रह है । ३. अपने अधिक लाभ को देखकर अहंकार में डूब जाना और दूसरों के अधिक लाभ में विषाद करना, जलना-कुढ़ना और हाय-हाय करना अतिविस्मय है। अपनी निर्धारित सीमा को भूल जाना या बढ़ाने की भावना करना भी उसमें शमिल है । अतिवाहन, अतिसंग्रह, ४. मनचाहा लाभ होते हुए भी और अधिक लाभ की आकांक्षा करना, क्रय-विक्रय हो जाने के बाद भाव घट-बढ़ जाने से, अधिक लाभ की सम्भावना हो जाने पर उसे अपना घाटा मानकर संक्लेश करना अतिलोभ है । ५. लोभ के वश होकर किसी पर न्याय से अधिक भार डालना, तथा सामने वाले की सामर्थ्य के बाहर अपना हिस्सा, मुनाफा, ब्याज आदि वसूल करना अति भारवाहन है । पांच इन्द्रियों के माध्यम से स्पर्श, रस, रूप, गन्ध और शब्द-स्वर आदि का ज्ञान होता है । इसी माध्यम से वस्तुओं के संग्रह की भावना बढ़ती है, अतः पांच इन्द्रियों के विषयों पर नित्य नियंत्रण की भावना रखना परिग्रह - परिमाण व्रत ही भावना है I हिंसा- झूठ-चोरी-कुशील और परिग्रह ये पांच पाप दुख रूप हैं। जिसके साथ हिंसा आदि का व्यवहार किया जाता है, वह तो दुःखी होता ही है परन्तु इन्हें करते समय, पाप करने वाले को भी कई प्रकार से दुख झेलने पड़ते है । पाप दुख रूप है। आगामी काल में इन पापों का दुष्फल भोगना पडेगा, तब भी तरह तरह दुख जीव को उठाने पड़ेंगे अतः पाप दुख के बीज भी है 1 के 134 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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