Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 168
________________ महावीर का अनुपम अवदान अपरिग्रह नीरज जैन, सतना परिग्रह की तृष्णा को अपने लिए अहितकर समझकर अंतरंग और बहिरंग सभी प्रकार के परिग्रहों से ममत्व-भाव हटाना, परिग्रह का भार कम करने के उपाय करना और अपनी आवश्यकता के अनुरूप उनकी सीमा निर्धारित करके उससे अधिक संग्रह का त्याग कर देना, यही परिग्रह परिमाण-अणुव्रत की परिभाषा है। यह अपनी अंतहीन इच्छाओं को सीमित करने का कौशल है अतः इसका दूसरा नाम इच्छा-परिमाण व्रत भी है। यह भगवान महावीर के उपदेशों का प्राण तत्व है । परिग्रह के प्रकार : परिग्रह चौबीस प्रकार का कहा गया है। चौदह अंतरंग और दस ब्राह्य । मिथ्यावाद या अविद्या, क्रोध, मान, माया और लोभ, हास्य रति-अरति भय-जुगुप्सा और शोक तथा स्त्री और नपुंसक वेद सम्बन्धी वासना, यह चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह है। दूसरे शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि चेतना में उठने वाली विकार की सभी तरंगे अंतरंग परिग्रह हैं । कामनाओं का ही दूसरी नाम है- अंतरंग परिग्रह । बाह्य परिग्रह के दस भेद है- क्षेत्र-वास्तु, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद, शयनासनयान, कुप्य और भाण्ड । इन सब अंतरंग और बहिरंग परिग्रहों में, अपनी शक्ति, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार सीमा बांध कर उनके बाहर जो अनन्त पदार्थ हैं उन सबका मन-वचन और काय से त्याग कर देना “परिग्रह परिमाण-अणुव्रत” है। परिग्रह परिमाण व्रत का दूसरा नाम इच्छा परिमाण व्रत है। इच्छाओं का विस्तार असीम है । यदि उन्हें सीमित न किया जाये तो इच्छाएं मानव को दानव के समान भयावह और विवेकहीन बना देती हैं । मनुष्य जब अपनी इच्छाओं के अधीन हो जाता है तब वह चाहता है कि सबसे अधिक सुखसुविधाएं और साधन उसी के पास हों । सारा वभैव, यश और खुशियां उसे ही मिलती रहें। मजे की बात यह है कि जैसे इच्छाओं की पूर्ति होती है, वैसे ही वैसे उनका दायरा बढ़ता जाता है । तृष्णा की यही विशेषता है कि वह कभी समाप्त नहीं होती । वह ऐसी आग है जो बुझना जानती ही नहीं। आज समाज में जो शोषण-वृत्ति, अविश्वास, ईर्ष्या-द्वेष, छल-कपट, दुख-दारिद्र्य, लूट-मार और शोक-संताप ऊपर से नीचे तक व्याप रहे हैं । उनका प्रमुख कारण परिग्रह वृत्ति, जमाखोरी, मुनाफाखोरी या संग्रह की भावना ही है। परिग्रहवृत्ति हिंसा का मूल कारण है। इससे बचना या इस पर नियंत्रण रखना ही हितकर है, इसीलिए गृहस्थ श्रावक को इच्छा-परिमाण व्रत का परामर्श दिया गया है । 133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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