Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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हजार साधु गणों ने तमिलनाडु में विचरण किया। उनके विहार से पवित्रित यह भूमि भग्नावशेषों के द्वारा आज भी उनकी पवित्र गाथाओं की याद दिलाती हुई शोभित हो रही है ।
भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् उनके पदानुगामी आचार्य कुन्दकुन्द महाराज की तपोभूमि इसी प्रान्त में है, उसका नाम पुन्नूरमलै है । यह पवित्र स्थान उनके महत्व की याद दिलाता हुआ शोभायमान हो रहा है । अकंलक बस्ती आह्वान करता हुआ बता रहा है कि आओ और महात्माओं के चरण-चिह्नों से आत्मशोधन कर प्रेरणा प्राप्त कर लो । मदुराई आदि जिलों में यद्यपि जैन धर्मावलम्बी नहीं है परन्तु यहाँ के सुरम्य पर्वतों की विशाल चट्टानों पर उत्कीर्ण जिनेन्द्र भगवान् के बिम्ब और गुफाओं में बनी हुई बस्तिकायें तथा चित्रकारी आदि सबके सब २००० वर्षों पूरानी अपनी अमर कहानी सुनाती रहती है । यहाँ सैंकड़ों साधु-साध्वियों के निवास, अध्ययन, अध्यापन के स्थान, आश्रम आदि के चिह्न पाये जाते हैं । सिद्धानवासन, यानेमलै, कलगुमलै आदि पहाड़ है। वे दर्शनीय होने के साथ-साथ आत्मतत्व के प्रतिबोध के रूप में जाने जाते हैं।
प्राचीनकाल में तमिलनाडु में जैन धर्म राजाओं के आश्रय से पनपता रहा । चेर, चोल, पाण्डय और पल्लव नरेशों में कतिपय जैन धर्मावलम्बी थे और कुछ जैन धर्म को आश्रय देने वाले थे। इसका प्रमाण यहाँ के भग्नावशेष और बड़े-बड़े मन्दिर है। चारों दिशाओं के प्रवेशद्वार वाले जितने भी अजैनों के मन्दिर है वे सभी एक समय में जैन मन्दिर थे । वे सब समवसरण पद्धति से बनाये हुए थे । अब भी बहुत से अजैन मन्दिरों में जैनत्व के चिहून पाये जाते हैं । इस पवित्र भूमि में जगत् प्रसिद्ध समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, सिंहनन्दी, जिनसेन, वीरसेन और मल्लिषेण आदि महान् ऋषियों ने जन्म लिया था । यह पावन स्थान उन तपस्वियों के जन्म स्थान होने के साथ-साथ उनका कर्मक्षेत्र भी रहा । यहाँ कोई ऐसा पहाड़ नहीं है जो जैन संतों के शिलालेखों, शय्याओं, बस्तिकाओं आदि चिह्नों से रिक्त हो।
तमिलनाडु में जैनाचार्यों द्वारा विरचित नीति-ग्रंथ बहुत है, जैसे- तिरुक्कुरल, नालडियार, अरनेरिच्चार आदि । जैन ग्रंथों को अजैन लोग भी प्रकाशन में लाते हैं क्योंकि जैन धर्म के ग्रंथ उत्तमोत्तम है , उसका उदाहरण नीलकेशी, जीवकचिंतामणी, मेकवरपुराण आदि है । जैन-अजैन सभी इन ग्रंथों को अत्यन्त उमंग एवं उल्लास से पढ़ते हैं।
यहाँ पर भट्टारकों की भी मान्यता है । यह प्रथा एक समय में भारतवर्ष में थी । उत्तर भारत में कम होती जा रही है। दक्षिण में यह प्रथा बनी हुई है। वर्तमान में मेलचितामुर में लक्ष्मीसेन भट्टारकजी है एवं तिरुमले में धवलकीर्तिजी भट्टारकजी है। तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र में भट्टारकों की मान्यता बराबर चलती आ रही है। जैन धर्म की रक्षार्थ यह मान्यता आदिशंकराचार्य के जमाने से हुई थी, बाद में मुगलों के अत्याचारों के कारण भी धर्म रक्षार्थ मुनियों को भट्टारक वेश धारण करना पड़ा था। आदिशंकराचार्य जैन धर्म के विरोधी थे। उन्होंने शैव मठ की स्थापना कर कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक हिन्दू धर्म का प्रचार
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