Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तीर्थंकर भगवान के जन्म के समय दस अतिशय होते हैं ...
अतिशयरूप, सुगन्धतन नाहि पसेव निहार, प्रिय हित वचन अतुल्य बल रुधिर श्वेत आकार । लक्षण सहसरु आठ तन समचतुरस संस्थान,
बज्रवृषभनाराज जुत ये जनमत इस जान ।। तीर्थंकर बालक के शरीर में खून दूध के समान सफेद होता है । कषायवान हिंसक प्राणियों के भावों में कलुषता के कारण उनका शारीरिक खून लाल होता है, किन्तु तीर्थकर भगवान के परिणामों में प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव होता है तथा परिणामों में अशुभ लेश्या का अभाव होता है, इसी कारण उनका खून सफेद होता है।
प्रभु के जन्म के समय भवनवासियों के भवन में शंखध्वनि, व्यन्तरों के यहाँ भेरीनाद, ज्योतिषयों के यहाँ सिंहनाद तथा कल्पवासियों के घर घंटे बजने लगते है ।
प्रभु के जन्म के महाप्रभाव से इन्द्र का आसान कम्पित होता, इन्द्र अवधिज्ञान से जानता है कि मध्यलोक में तीर्थंकर प्रभु ने जन्म लिया है । वह हर्ष विभोर हो उठता है। सिंहासन से उठकर “जयतां जिनः" ऐसा कहकर हाथ जोड़कर भगवान् को परोक्ष नमस्कार करता है । इन्द्र की आज्ञा प्राप्तकर चतुर्निकाय के देव सौ गर्म इन्द्र की सभा में उपस्थित होते हैं । कुबेर सात प्रकार की सेना सहित अभियोग्य जाति के देव को ऐरावत बनने को आदेश देता है। कबेर की आज्ञा पाते ही विक्रिया शक्ति से सम्पन्न वाहन जाति का दवे एक लाख योजना का गजाकार वैक्रियिक शरीर बनाता है । उस गजराज के बत्तीस मुख होते हैं । एक-एक मुख में आठ-आठ दांत और प्रत्येक दांत पर एक-एक सरोवर, प्रत्येक सरोवर में एक-एक कमलिनी, एक-एक कमलिनी सम्बन्धी बत्तीस-बत्तीस कमल । प्रत्येक कमल के बत्तीस-बत्तीस पत्र रहते हैं। प्रत्येक पत्र पर देवांगनाएं मनोहरी नृत्य करती है।
चतुर्निकाय देव के साथ सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर प्रभु के जन्म स्थान पर पहुंचते हैं। सर्वप्रथम इन्द्र नगर की तीन प्रदक्षिणा देकर राजांगण में प्रवेशकर इन्द्मणी को प्रसूति घर में जाकर प्रभु को लाने की आज्ञा देता है ।
देवराज की आज्ञा पाकर इन्ह्मणी प्रसूतिघर में जाकर प्रभु के प्रथम दर्शन कर आल्हादित होती है, प्रभु की तीन प्रदक्षिणा देकर भक्तिपूर्वक नमस्कार करती है। प्रथम दर्शन करने का महाभाग्य इन्द्राणी को प्राप्त हुआ, अहो पुण्य की महिमा अद्भूत है । प्रभुदर्शन से इन्द्राणी के नयनचकोर पुलकित हो उठे, हृदय में कल्पनातीत हिलोरे उठने लगी। इसी प्रथम दर्शन की भक्ति का महाफल वह इन्द्राणी एक भवावतारी होती है। इन्द्राणी माता की भक्ति कर माता के पास मायामयी बालक को रखकर प्रभु को गोदी में लेकर बाहर जाती है और इन्द्र की गोद में प्रभु को अर्पण करती है।
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