Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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कर्म से ही नहीं जन्म से भी महान्
मानव कर्म से ही नहीं जन्म से भी महान् है, आज जन-जन में एक भ्रम धारणा बन चुकी है कि मानव जन्म से नहीं अपितु कर्म से महान् है, जैन शासन में २४ तीर्थंकर जिस समय गर्भ मे आते है, गर्भ में आने के छः माह पूर्व ही कुबेर सुन्दर नगरी की रचना करता है। गृहांगन में रत्नों की वर्षा होती है। माता सोलह मंगल स्वप्नों को देखती है । इन्द्र की आज्ञा से अष्ट देवियाँ श्री, ही, धृति आदि व ५६ कुमारिकाएं माता की सेवा करती हैं यह सब क्यों ? इसका समाधान है कि गर्भ में आने वाला बालक कर्म से नहीं जन्म से ही अथवा गर्भ से ही महान् है । इतना ही नहीं जो जीव नरकायु को छोड़कर मध्यलोक मे तीर्थंकर होने वाले होते हैं उनके लिए नरक में भी ६ माह पूर्व नारकी उपद्रव नहीं कर पाते । देवलोक के जीव उनकी सुरक्षा में कोट लगा देते है । यदि जन्म लेने वाले जन्म से महान् नहीं होते तो नगर की रचना, रत्नों की वर्षा, साढ़े बारह करोड़ बाजों का बजना, इन्द्र द्वारा देवियों को माता की सेवा में भेजना, जन्मते बालक का सुमेरू पर्वत पर देवों द्वारा अभिषेक होना, जन्मजात शिशु के समक्ष एक भवावतारी सौधर्म इन्द्र का नतमस्तक होना उनके समक्ष नृत्य करना आदि अद्भुत कार्य, कैसे हो सकते हैं ?
- आर्यिका श्री स्याद्वादमती जी
तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, कामदेवादि महापुरुष जन्म से महान् हैं और कर्म से तो महान् है हीं । विचारणीय प्रश्न यह भी है कि एक महान् जीव के गर्भ में आने पर घर-परिवार मे सुख-शान्ति-वैभव में वृद्धि होती हैं माता के चेहरे पर मुस्कान होती है तथा उसे अच्छे-अच्छे दोहद उठते है । दुष्ट जीव के गर्भ में आने पर घर-परिवार में विपत्ति आती है, घर की रूचि अशुभ कर्मों में लगती है तथा मां को भी अनिष्ट दोहद उठते हैं । इन सभी विचारणीय चिन्हों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि मानव जन्म से भी महान् है, कर्म से भी महान् है ।
सत्यता की ओर दृष्टिपात करें, गहराई में प्रवेश करें तो जो जन्म से महान् नहीं है वह कर्म से भी महान् नहीं हो सकता । उच्च कुल में उत्पन्न हुआ मानव दिगम्बरावस्था को प्राप्त कर मुक्ति श्री का वरण कर सकता है, अन्य नहीं । जन्म से जिसका कुलादि उत्तम है उसकी वाणी, उसका व्यवहार, उसका रहन-सहन आदि अपने आप में विशेषता लिए होता है । अतः कर्म की महानता में प्रथम जन्म की महानता आवश्यक है । जन्म से महान् होने में अनेकों जन्मों का पुरुषार्थ कारण है ।
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जिस भव्यात्मा ने पूर्व भव में प्राणीमात्र के उत्थान का विचार किया है, जिसके परिणामों में प्राणीमात्र के कल्याण की भावना सदा रही है, ऐसी महान् आत्मा तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है वह जन्म से भी नहीं
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