Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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षट्खण्डागम सिद्धान्त ग्रन्थ एवं तमिलनाडु
षट्खण्डागम जैसे महान् ग्रन्थ का नाम सुनते ही दिगम्बर जैन समाज के हर व्यक्ति का सिर गौरव से नतमस्तक हो जाता है। यह इतना महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है कि मानो भगवान् महावीर रूपी हिमालय से निकली हुई गंगा है । इसका संबन्ध भगवान् महावीर से है। भगवान् महावीर के बाद चौदह पूर्वधर गौतम गणधर, परंपरागत श्रुत केवलीगण तथा अन्तिम रूप से सभी अंग पूर्वो का ज्ञान आचार्य परंपरा से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ ।
- पं. मल्लिनाथ शास्त्री
ये महान् आचार्य सौराष्ट्र (गुजरात काठियावाड़) देश के गिरनार नाम के नगर की चन्द्रगुफा में रहने वाले थे । अष्टांग महानिमित्त के पारगामी, प्रवचन वत्सल आचार्य धरसेन महाराज को भान हुआ कि आगे अंग- श्रुत का विच्छेद हो जायेगा, अतः लिपिबद्ध कर इसकी सुरक्षा करनी चाहिए ।
वस्तुतः आचार्य धरसेन महाराज के पूर्व लोगों की अविस्मरणीय स्मरण शक्ति थी । ज्ञान शीघ्र ही कण्ठस्थ कर लेते थे । लिपिबद्ध की परंपरा नहीं थी। लोग एक सन्धी, द्विसन्धी, त्रिसन्धी ग्राही रहा करते थे । अर्थात् जिसको एक बार सुनाने से शास्त्र का ज्ञान हो जाता है (स्मरण शक्ति स्थिर हो जाती थी) ऐसे ज्ञान वाले को एक सन्धी-ग्राही कहते थे । जिसे दो बार कहने की आवश्यकता पड़ती थी, उसे द्विसन्धी-ग्राही कहते थे। जिसे तीन बार कहने की आवश्यकता पड़ती थी, उसे त्रिसन्धीग्राही कहते थे । अर्थात् उन लोगों को सभी बातें याद हो जाती थी, भूलते नहीं थे, अतः सिद्धान्त - विषय आदि बातों को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी, कालान्तर में स्मरण-शक्ति कम होती गई, कई बार कहने पर भी लोग भूलने लगे, यह परिस्थिति धरसेनाचार्य महाराज के समक्ष थी ।
अतः आचार्य महाराज ने सोचा कि स्मरण-शक्ति कम हो जाने के कारण सैद्धान्तिक विषयों को यदि लिपिबद्ध न किया गया तो इनका विच्छेद ही हो जायेगा। सिद्धान्त के रहस्य का ज्ञान शून्य हो जायेगा । अतः सिद्धान्त विषयों को लिपिबद्ध कर देना अत्यन्त आवश्यक है। इस तरह का विचार उनके मानस में आया ।
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उचित समय पर धरसेनाचार्य के नेतृत्व में पंचवर्षीय साधु सम्मेलन हुआ था । उसमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथ (दक्षिण देशों के) आचार्यों के पास आचार्य धरसेन महाराज ने एक लेख भेजा। जिसमें उक्त कही गई बातों का विवरण था। दक्षिणापथ के आचार्यों ने उन वचनों को अच्छी तरह समझकर
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