Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 47
________________ तथा प्रजा' यह नीति बतलाती है कि हर धर्म के लिए राज्य सत्ता की सहायता अत्यन्त आवश्यक है। पल्लव राज्य के अधिपति महेन्द्रवर्मन कट्टर जैन धर्मानुयायी थे। वे संस्कृत के अच्छे ज्ञाता और विद्वान् थे। उन्होंने 'भत्तविलास प्रहसनं' नामक एक रोचक ग्रंथ का निर्माण किया था । उसमें अन्य धर्मों का उपहासमय खण्डन और जैन धर्म का मण्डन है। स्व. ए. चक्रवर्ती नैनार एम.ए. ने उसे प्रकाशित किया था, जो अत्यधिक रोचक है । मत-संघर्ष इस बात को हम लोग जान गये हैं कि ई. पू. कई सदी पहले से जैन धर्म तमिलनाडु में समृद्ध होकर पनपता आ रहा था। इसका मतलब यह नहीं कि यहाँ दूसरा धर्म नहीं था । उस जमाने में अन्य धर्म वाले भी मौजूद थे। वे हैं- वैदिक धर्म (ब्राह्मण धर्म), बौद्ध धर्म एवं मक्खली के 'आजीवक' । इनके अलावा तमिलनाडु में द्रविड़ धर्म भी एक था । ऊपर कहे गये जैन, बौद्ध, आजीवक और वैदिक- ये चारों धर्म वाले आपस में लड़कर एक-दूसरे को गिराने के प्रयत्न में लगे हुए थे। इसलिए इनकी लड़ाई के बारे में जानना अत्यावश्यक है। इन धर्मों की लड़ाई में आजीवक धर्म शक्तिहीन होकर तिरोहित हो गया, बाकी जैन, बौद्ध, वैदिक (वेद आधारित) तीनों बहुत काल तक आपस में लड़ते रहे । इनमें वैदिक धर्म वालों की हालत भी बिगड़ने लगी। इसका कारण यह है कि वैदिक हवन (याग) में हिंसा होती थी। ब्राहमण लोग ऊँच-नीच का विचार रखते थे। अपने वेद-शास्त्र का अध्ययन अन्य मतवालों को नहीं करने देते थे। ये लोग स्वर्णदान, क्षेत्रदान, गोदान, महिषदान, अश्वदान, गजदान और कन्यादान को प्राप्त करने में ही ज्यादा दिलचस्पी रखा करते थे। जैन और बौद्ध साधारण जनता के लिये शास्त्रदान, विद्यादान, औषधदान और अभयदान दिया करते थे। इन कारणों से जैन-बौद्ध के समान वैदिकमत पनप नहीं सका था। जैन, बौद्ध धर्म का ही महत्व था। इसके अलावा इन धर्मों के प्रसिद्ध होने का अन्य कारण शिक्षा देना, रोगियों का रोग निवारण करना था। इन धर्मों के अनुयायी हिंसा और मांस भक्षण नहीं करते थे। इनके लोकप्रिय कार्यो से जनता आकृष्ट हो जाती थी। दुर्भाग्य की बात यह है कि ये दोनों (जैन-बौद्ध) मिल-जुलकर नहीं रहे । आपस में लड़ते थे। इसका आधार नीलकेशी और कुण्डलकेशी ग्रन्थ है । इन दोनों तमिल ग्रंथों में आपस के मतभेद का खण्डन है । आखिर बौद्ध मत के अन्दर भेदभाव होने से उसकी शक्ति क्षीण हो गई। ई.८ वीं सदी (ई.७५३) में जैन धर्म के महान् आचार्य अकलंक महाराज ने कांजीपुर नगर के कामाक्षी मन्दिर में 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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