Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तीर्थंकरों के अंगरक्षक यक्ष-यक्षिणिया एका व्यावहारिक दृष्टि
- जयचन्दलाल बाकलीवाल जैन धर्म में प्रत्येक तीर्थंकर के गर्भ-कल्याणक से लेकर मोक्ष-कल्याणक के ठीक पूर्व तक लाखों देव, देवांगनाएँ, यक्ष-यक्षिणियाँ और इन्द्र-इन्द्राणी तक अनेक प्रकार के भक्तिभाव, सेवावृत्ति, अतिशय और चमत्कारों का प्रदर्शन शुद्ध मनोयोग पूर्वक करते हैं। रत्नों की वर्षा, उत्तम जलवायु, समभाव और सुकाल का वातावरण रहता है। अरिहन्त परमेष्ठी (तीर्थकर) के ४६ में से ४२ गुण तो अतिशय और चमत्कार के हैं। स्वयं तीर्थंकर इन्हें समभाव से लेते हैं। स्पष्ट है ये देव, देवांगनाएँ भगवान के निष्काम भक्त है । इनकी उज्ज्वल भक्ति से हम भक्तों को भी अपार प्रेरणा मिलती है । ये सभी महान् पुण्यात्मा है, निर्मल दृष्टि हैं । अतः इन सबके प्रति हमारे मन में आदरभाव और श्रद्धा जगना स्वाभाविक है।
हम एक वकील, पुलिस इन्सपेक्टर, डॉक्टर एवं राजनेता से उपकृत होने पर मस्तक झुकाकर एहसान मानते हैं, नाक रगड़ते हैं। किसी से लाभ होने पर भी कृतज्ञता प्रकट करते ही है । भक्ति तो व्यक्ति के माध्यम से गुणों का ही नमन है। तब एक तीर्थकर भक्त के प्रति हीनभाव रखें और उपेक्षा से देखें तो यह आत्मप्रवंचना के अलावा और कुछ नहीं है। सभी धर्मों में भगवान् के भक्तों के प्रति आदर और श्रद्धा की प्रशस्त परंपरा है । हम यदि इस प्रकट सत्य का उल्लंघन करेंगे तो अव्यावहारिक (अनप्रेक्टीकल) होकर रह जायेंगे और अधिक अल्पमत में आ जायेंगे। हमने लोक पक्ष की उपेक्षा का बहुत मूल्य चुकाया है, अब तो सावधान होना चाहिए । हमारी धार्मिक दृष्टि से देवी-देवता, यक्ष-यक्षिणी के प्रति भक्तिभाव या पूज्यभाव प्रकारान्तर से तीर्थंकर के देव भक्तों के प्रति सम्मान ही है।
भारतवर्ष में जो अतिप्राचीन जिनालय है उनमें अधिकतर दक्षिण में- विशेष रूप से तमिलनाडु एवं कर्नाटक में है। इन जिनालयों में सभी भव्य प्रतिमाओं के साथ यक्ष-यक्षिणी नियम से होते हैं। जब वे जिनेन्द्रदेव के चरणों में पूर्ण भक्ति से विराजमान है तो वे भी भव्य एवं सम्यगदृष्टि है। हमें भी उनसे प्रेरणा मिलती है । लक्ष्य तो आत्म स्वरूप की प्राप्ति ही है। इसलिए हम सब भी हजारों वर्षों से उनका आदर, सम्मान करते आये हैं, आशीर्वाद लेते आये हैं । हम सबका यह परम कर्तव्य है कि जहाँ पर जो परिपाटी हो , जो पूजा-पद्धति हो उनको उसी अनुरूप कायम रखें । देवी-देवता जो प्राचीनकाल से विराजमान है, उनको बराबर आदर देवें, उनसे प्रेरणा लेवे । उनको हटाने का विचार मन में भी न लावें । तभी हमारी संस्कृति कायम रह सकेंगी।
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