Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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हिरनी निर्बल होकर भी बच्चे की प्रीति से सिंह का सामना कर बैठती है ! हे भगवान ! मेरा ज्ञान थोड़ा सा है अतः विद्वज्जन मुझ पर हँसेंगे पर क्या करूँ ? आपकी भक्ति ही मुझे जबरन बातूनी बना रही है । कोयल हमेशा चुप रहती है लेकिन बसन्त में आम्रमंजरियाँ उसे कूकने को विवश कर देती है ।'
आचार्य कहते हैं कि स्तोत्र मंगलमय होता है :
७.८ 'हे देव ! जैसे अमावस का अंधेरा भी प्रभात में सूर्य किरणों द्वारा शीघ्रतया विघटित हो जाता है, उसी प्रकार आपकी स्तुति से प्राणियों के कई जन्मों का पाप तत्क्षण नष्ट हो जाता है। यही जानकर मन्दबुद्धि होता हुआ भी अब मैं स्तुति शुरू करता हूं ।'
यह स्तोत्र इतना आकर्षक क्यों बना है ? इसका कारण आचार्यश्री स्वयं देते हैं :
८. 'हे नाथ ! यह स्तोत्र आपके प्रभाव से आपका स्तोत्र होने के कारण सर्वप्रिय बनेगा, शब्द भले ही मेरे रहे आये । कमलिनी के पत्तों की संगति पाकर पानी की छोटी सी बूंद मोती की तरह जगमगा उठती है, सबको अच्छी लगने लगती है ।'
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इसके उपरान्त मानतुंग स्वामी अपनी पूर्वकथित बात में संशोधन करते है :
६.१०. ‘हे स्वामी ! आपकी स्तुति को पापनाशक ही समझना मेरी भूल होगी क्योंकि पाप तो केवल आपकी चर्चा ही से नष्ट हो जाते हैं। आपकी निर्दोष स्तुति तो स्तोता को स्तुत्य बनाने वाली है बशर्ते चापलूसी न हों वास्तविक गुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले भक्त स्वयं एक दिन भगवान बन जाते हैं अतः अन्यत्र भटकने से क्या प्रयोजन, जहाँ शरणागत को हमेशा ही शरणागत रहना पड़ता है ?
भगवान के अनुपम सौदर्न्य का चित्रण भी आचार्य देव बड़े अच्छे ढंग से करते हैं :
११.१२ ‘हे रूप सिरताज ! चूंकि आपका रूप शान्ति की कान्ति प्रदान करने वाले दुर्लभ परमाणुओं से रचा गया, इसलिये आपके दर्शनोपरान्त आंखे कहीं और तृप्त ही नहीं होती। यदि वे परमाणु थोड़े और होते, तो कोई दूसरा भी आप सा रूपवान दिखाई देता, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया । क्षीरसागर का मधुर जलपान जिसने किया है, उसे जैसे खारे सागर का जल चखने की ईच्छा नहीं होती वैसा ही हाल मेरा हुआ है आपके बाद अब किसी की झलक पाने को भी जी नहीं करता ।
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१३. 'कवि लोग सुन्दर मुख को चन्द्र कहते हैं लेकिन कहाँ आपका अनुपम चेहरा और कहां बेचारा चन्द्रमा ? उस पर तो काले धब्बे हैं ।'
१४. 'हे ब्रह्मलीन मुनीश्वर ! आपका ब्रह्मचर्य अद्भूत रहा । अप्सराएं आपको तपस्या से बिलकुल न डिगा सकीं क्योंकि आप वैराग्य और तत्वज्ञान की साक्षात् मूर्ति थे, परिस्थितिवश बने हुए साधु नहीं । क्या आंध सुमेरु को हिला सकती है ?”
१६. 'अहो नाथ ! आप कोई दूसरे ही दीप हो क्योंकि आप धुआँ, बत्ती एवं तेल से रहित हो, -तूफान से बुझते नहीं और केवलज्ञान रूप लौ द्वारा सारे जगत को प्रकाशित करते हो । '
१७. 'हे मुनीन्द्र ! आपकी महिमा सूर्य से बढ़कर है तभी तो आप कभी डूबते नहीं, आप पर ग्रहण
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