Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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जैन धर्म की अभिवृद्धि
प्राचीन काल में जैन धर्म संपूर्ण तमिलनाडु में फैला हुआ था तथा जैन लोग बहुसंख्यक थे । वे लोग अच्छे धनाढ्य एवं समृद्धशाली थे । जैन धर्म की अभिवृद्धि के विषय में अन्य मतों के तेवारं, पेरियपुराणं, तिरुविलैयाडलपुराणं, नालायिरप्रबन्धं आदि शैव-वैष्णवों के ग्रन्थ और बौद्धमत के मणिमेखलै, जैनमत के शिलप्पधिकारं विस्तृत रूप से बतलाते हैं । इसके अलावा तमिलनाडु के अन्दर सब जगह मिलने वाले शिलालेख, खण्डहर, जैन मन्दिर, पहाड़, जंगल आदि स्थलों में असुरक्षित, अव्यवस्थित पड़ी तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ इस बात की साक्षी है ।
जैन धर्म के लोग अन्न, अभय, औषध और शास्त्र - इन चार दानों को अपनी शक्ति के अनुसार जाति भेद के बिना सारे लोगों को दया दृष्टि के साथ दिया करते थे । गरीबों को आहार दान, औषध दान देना और जो डरे हुए हैं, उन्हें अभयदान देना अपना कर्तव्य समझते थे । वे लोग अभयदान का स्थान यथासंभव बहुतया जैन मन्दिर के आसपास ही रखते थे । इस स्थान का नाम तमिल भाषा में ‘अंजिनान पुगलिडं’ अर्थात् 'भयभीतों की रक्षा स्थान' था । शासन में इसके बारे में लिखा हुआ मिलता है साऊथ आर्काड जिले में पल्लिचन्दल गॉव के खेतों में एक शिलालेख है ।
दूसरा नार्थ आर्काड जिला वन्दवासि तालूका, तेल्लार गाँव में एक मन्दिर के मण्डप में मारवर्मन त्रिभुवन चक्रवर्ती विक्रम पाण्डयदेव के पाँचवें वर्ष में लिखा गया 'अंजिनान पुगलिडं' है । सकल लोक चक्रवर्ती संबुवरायर राजा के १६ वें वर्ष में एक पूरा गॉव अंजिनान पुगलिंड रहा ।
औषधदान में भी जैन लोग अग्रणी रहे थे । ये लोग खुद वैद्य बनकर सभी लोगों के रोगों की निःशुल्क चिकित्सा कर सहायता करते थे । उन लोगों के औषधिदान महिमा का स्मरण अपने जैन ग्रन्थ दिलाते हैं । जैसे बिरिकडु के एलादी, सिरु पंचमूलं आदि - ये ग्रंथ (लौंग-इलायची) रोग निवारण करने वाली दवाई के नाम से रचे गये हैं । इन ग्रंथों से शरीर का रोग और आत्मा का रोग (कर्म) दोनों निवारण किया जाता था ।
वे लोग शास्त्र दान में (ज्ञानदान) भी आगे रहते थे । जैन लोगों के साधुगण हमेशा धर्मोपदेश के साथ-साथ ज्ञानदान दिया करते थे। हर गाँव में पाठशाला खोलकर बच्चों को निःशुल्क पढ़ाकर ज्ञानदान देना जैनियों का कर्तव्य समझा जाता था । इस कारण सारी जनता जैनों के प्रति आदर भाव दिखाती थी । दूसरी बात यह है कि जैनियों के कारण से ही बच्चों के पढ़ने का स्थान पाठशाला के नाम से प्रसिद्ध था । आज भी उसी नाम से पुकारा जाता है ।
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