Book Title: Tamilnadu Digambar Tirthkshetra Sandarshan
Author(s): Bharatvarshiya Digambar Jain Mahasabha Chennai
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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परिस्थिति में भद्रबाहु महाराज हजारों मुनिराजों को श्रद्धालु जैन श्रावकों से रिक्त तमिलनाडु में कैसे भेजते ? कदापि नहीं। आजकल ८-१० मुनियों का संघ आ जाये तो भी कितना परिश्रम उठाना पड़ता है। यह सर्वविदित ही है । हजारों मुनिराजों के समागम होने पर कितने श्रद्धालु जैन श्रावकों की आवश्यकता पड़ी होगी ? यह समझने की बात है। वस्तुतः दि. जैन साधुगण, जहाँ भक्त एवं श्रद्धालु श्रावक समाज बसता है, वहीं पदार्पण करते हैं । इसलिये यहाँ पर अच्छी तरह समझना यह है कि हजारों की संख्या में मुनिराजों का समागम हुआ हो तो उन्हें सम्हालने की क्षमता तमिलनाडु के तत्कालीन जैनियों पर निर्भर थी और उस समय जैन लोग लाखों की संख्या में तमिलनाडु में निवास करते थे। तभी तो चर्या को संभालना संभव हो सका, नहीं तो असंभव ही था । अतः निःसन्देह स्वीकार करना पड़ेगा कि श्रुतकेवली भद्रबाहु महाराज के शिष्यगण दक्षिण में विशेषतः तमिलनाडु में आने के पहले से ही यहाँ पर जैन धर्म मौजूद था और लाखों की संख्या में जैन लोग यहाँ निवास करते थे। यह बात निर्विवाद सिद्ध है। इस बात को स्वर्गीय डॉ. ए. एन. उपाध्याय ने भी अपने प्रवचनसार की प्रस्तावना में स्वीकार किया है।
इसके अलावा 'मेक्डोनल' नाम के विदेशी विद्वान् ने संस्कृत व्याकरण पर बहुत कुछ लिखा है । उनका कथन है कि संस्कृत का 'इन्द्र' व्याकरण और तमिल भाषा का 'तोलकाप्यं' - इन दोनों का काल एक है । इन्द्र व्याकरण का काल ई. पूर्व ३५० का है। वैसे ही 'तोलकाप्यं' का काल भी है।
पराक्रमी 'सिकन्दर' ने भारत पर चढ़ाई की थी। उस समय के ज्योतिषी भी उनके साथ आये थे। वे ज्योतिषी अपनी टिप्पणी में लिखते हैं कि तमिल भाषा में 'तोलकाप्यं' नाम का एक अद्वितीय व्याकरण है। इससे पता चलता है कि सिकन्दर के भारत में आने के पहले से ही तोलकाप्यं प्रसिद्ध व्याकरण के रूप में मशहर था ।
भारत पर सिकन्दर की चढ़ाई ई. पूर्व तीसरी सदी से पहले हुई है । अतः तोलकाप्यं का काल उससे पहले का है, इसे निःसंकोच स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है । तोलकाप्यं एक जैन व्याकरण है। उसमें एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक का वर्णन है । एक स्थान पर लिखा है कि 'विनैयिन नींगिविलंगिय अरिवन मुनैवन कण्डदु मुदल नूलगम्' अर्थात् कर्मबंधन से विमुक्त ज्ञानी (केवलज्ञानी-सर्वज्ञ) जो प्रथम महापुरुष आदिनाथ ऋषभदेव हैं, उनके ज्ञान में प्रतिभासित शास्त्र ही पहला शास्त्र हैं। यह बात सर्वज्ञ वीतराग आदिनाथ भगवान के साथ घटित होने से निष्पक्ष विचारशील अजैन 'वेणुगोपाल पिल्लै' और मयिलै सीनु 'वेंकटस्वामी' आदि इतिहास के विद्वान् लोग तोलकाप्यं को जैन आचार्यों की ही रचना कहते हैं । अतः उक्त ग्रन्थ को जैन ग्रंथ कहने में किसी तरह संदेह नहीं है। उसमें जैन धर्म संबन्धी कई बातें ज्ञात होने से स्पष्ट है कि उसके पहले से ही तमिल प्रान्त में जैन धर्म फैला हुआ था।
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