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भूमिका
प्राप्त करके साधक सदैव सुरक्षा का अनुभव करता है । इसीलिए किसी कवि ने कहा है -
__ "निर्भय हवे हु छु, नाड छे तुझ हाथमां ।” एक क्षण भी ऐसी स्थिति का अनुभव करनेवाले साधक का अंतःकरण निर्भय, निरीह (इच्छा रहित) और निराकुल बन जाता है । उसे आत्मापरमात्मा के सिवाय कहीं भी आनंद नहीं दीखता । जिस तरह कोई अभिनेता किसी पात्र को पेश करने पर भी उससे अलिप्त रहता है वैसे वीतराग के साथे साधक का नाता जुड़ जाता है तब कर्मकृत जगत् के नाटक का वह एक पात्र होता है। पर उसमें उसको राग-द्वेष, हर्ष-शोक, यश-अपयश का कोइ द्वंद्व नहीं रहता । निर्द्वद्व आनंद का वह अनुभव कर सकता है । चैत्यवंदन का वास्तविक फल यह है । इसका वर्णन करते हुए महामहोपाध्यायजी कहते हैं,
"भक्तवत्सल प्रभु करुणासागर, चरण शरण सुखदाई जस कहे ध्यान प्रभु का ध्यावत, अजर अमर पद पाई द्वन्द्व सकल मीट जाए.. सखीरी आज आनंद की घडी आई..." चैत्यवंदन धर्म के अधिकारी कौन ?
जगत् के भावों से पर होकर परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करना आसान नहीं होता, इसलिए यह कार्य सभी नहीं कर सकते । देशविरति आदि गुणस्थानक को प्राप्त किए हुए महासात्त्विक सम्यग्दृष्टि जीव ही वास्तव में परमात्मा के साथ एकाकार हो सकते हैं, इसलिए वे ही चैत्यवंदन करने के मुख्य 1. देस सव्वे य तहा, नियमेणेसो चरित्तिणो होइ । इयरस्स बीयमित्तं, इत्तु च्चिय केइ इच्छंति ।।३।। जे देसविरइजुत्ता, जम्हा इह वोसिरामि कायं ति सुच्चइ विरइए इमं ता सम्मं चिंतियव्यमिणं ।।१३।।
. योगविंशिका 2. सम्यग्दृष्टिः वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसमें जो श्रद्धा करता है, उसे सम्यग्दृष्टि
कहते हैं । सम्यग्दृष्टि आत्मा संसार को यथार्थरूप से जान सकता है, इसी कारण असार संसार के ऊपर उसकी रुचि का अभाव होता है और संसार के यथार्थ स्वरूप को बताने वाले वीतराग परमात्मा के प्रति उसकी भक्ति की भावना जगती है ।