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सूत्र संवेदना - २
परमात्मा के साथ बंधा हुआ यह संबंध लोकोत्तर है। अनादिकाल से लौकिक संबंध से परिचित, रूप और रुपये में आसक्त बने लोगों के लिए तो यह संबंध बांधने की बात तो दूर रही, वे ऐसा संबंध समझ भी नहीं सकते। जो संसार से विरक्त होकर आत्माभिमुख होते हैं और आत्मिक आनंद को प्राप्त करने के लिए ही चैत्यवंदन करते हैं, वे इस क्रिया के माध्यम से परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करके आत्मिक सुख प्राप्त कर सकते हैं, इसीलिए देवचंद्रजी महाराज ने ऋषभदेव भगवान के स्तवन में कहा है
___ "प्रीति अनंती पर थकी जे तोड़े ते जोड़े एह रे..." अनादिकालीन जड़ की प्रीति के कारण साधक आत्माओं को भी प्रारंभिक कक्षा में तो परमात्मा के साथ तादात्म्य पैदा करने में बहुत अवरोध खड़े होते हैं, समझदारीपूर्वक जैसे-जैसे वे जड़ की आसक्ति को छोड़ते हैं, वैराग्य आदि गुणों को प्राप्त करते है, वैसे-वैसे परमात्मा के साथ उनका संबंध मजबूत बनता जाता है और संसार के जड पदार्थो के साथ उनका संबंध कमज़ोर पड़ता जाता है । चारित्रमोहनीयकर्म से विवश बने चित्त में उठती वृत्तियाँ शांत होती जाती हैं और धीरे-धीरे साधक परमात्मा के गुणों की उपासना में आगे बढ़ता जाता है । भक्ति के अमूल्य पलों में वह स्व-पर का भेद बिसर जाता है । परमात्मा के साथ यत्किंचित् अभेद भाव उत्पन्न करके साधक आत्मानुभूत्नि का महाआनंद पा सकता है । आत्मानुभूति के इस आनंद को वह जानता है, मानता है, लेकिन किसी से कह नहीं सकता। इसीलिए पू. उपाध्याय जी महाराज ने कहा है -
"प्रभु गुण अनुभव रस के आगे, आवत नहीं कोउ मान में.. जिनहि पाया तिनहि छिपाया, न कहे कोऊ के कान में;
ताली लागी जब अनुभव की, तब समझे कोऊ सान में ।" निश्चयनय की अपेक्षा से इस तरह ध्येय के साथ ध्याता की जो एकरूपता है, वही वास्तव में चैत्यवंदन है । परमात्मा की ऐसी भक्ति को