Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 12
________________ परोवयारनिरया, पउमाइनिर्दसणा, झाणज्झयणसंगया, विसुज्झमाणभावा साहू सरणं ॥८॥ अर्थ ः तथा अत्यन्त शांत और गम्भीर आशय (चित्त व्यापार) वाले, पापयुक्त मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्ति के त्यागी, पांच प्रकार के आचार (ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार) के ज्ञाता, धर्मदेशना-धर्मसम्पादनधर्मरक्षण द्वारा परोपकार में निरत,कमल आदि की उपमाओं से उपमित, प्रशस्त ध्यान एवं स्वाध्याय में लीन तथा समिति-गुप्ति आदि शास्त्रविहित अनुष्ठानों द्वारा आत्म परिणामों की उत्तरोत्तर विशुद्धि करने वाले साधु भगवान मेरे लिए शरण हैं, मैं आपके शरण में हूँ॥८॥ ___ मूल - तहा सुरासुरमणुअपूइओ, मोहतिमिरंसुमाली, रागद्दोसविसपरममंतो, हेऊ सयलकल्लाणाणं, कम्मवणविहावसू, साहगो सिद्धभावस्स, केवलिपण्णत्तो धम्मो, जावज्जीवं मे भगवं सरणं ॥९॥ ___अर्थः तथा जो सुरों (ज्योतिष्क तथा वैमानिक देवों) और असुरों (भवनपति और व्यन्तर देवों) तथा विद्याधर आदि मनुष्यों द्वारा पूजित हैं, जो मोह रूपी अन्धकार को हटाने के लिए सूर्य के समान हैं, राग-द्वेष रूपी विष को नष्ट करने के लिए उत्तम मंत्र के समान है, समस्त कल्याणों का एकमात्र कारण है,कर्मरूपी वन को भस्म करने के लिए अग्नि है, जिसकी आराधना से सिद्धत्व की प्राप्ति होती है और जो सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित है ऐसा भगवान (ऐश्वर्यशाली) धर्म मेरे लिए जीवन पर्यन्त के लिए शरण हो। [मूल में आया हुआ 'भगवं' पद संबोधन भी हो सकता है जिसका अर्थ होगा'प्रभो! ऐसा धर्म मेरे लिए शरणभूत हो।'] ॥९॥ मूल - सरणमुवगओ अ एएसिं गरहामि दुक्कडं जं णं अरहंतेसु वा, सिद्धेसु वा, आयरिएसु वा, उवज्झाएसु वा, साहूसु वा, साहुणीसु वा, अन्नेसु वा, धम्मट्ठाणेसु माणणिज्जेसु पूअणिज्जेसु तहा माईसु वा, पिईसु वा, बंधूसु वा, मित्तेसु वा, उवयारिसु वा, ओहेण वा जीवेसु, मग्गट्ठिएसु, अमग्गट्ठिएसु, मग्गसाहणेसु, अमग्गसाहणेसु, जं किंचि वितहमायरिअंअणायरिअब् अणिच्छिअवं पावं पावाणुबंधि सुहमं वा बायरं वा, मणेण वा वायाए वा काएण वा, कयं वा काराविरं वा अणुमोइअं वा, रागेण वा दोसेण वा मोहेण वा, इत्थं वा जम्मे जम्मतरेसु वा, गरहिअमेअं, दुक्कडमेअं, उज्झिअब्बमेअं, विआणि मए कल्लाणमित्तगुरुभगवंतवयणाओ, एवमेअंति रोइअंसद्धाए, अरहंतसिद्धसमक्खं, गरहामि अहमिणं, दुक्कडमेअं उज्झिअव्वमेओ इत्थ मिच्छा मि दुक्कडं, मिच्छा मि दुक्कडं, मिच्छा मि दुक्कडं ॥१०॥ . श्रामण्य नवनीत

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