________________
अर्थः वह साधु विशिष्ट प्रकार की करुणा आदि के वश धर्मदान के द्वारा प्रधान परहित का साधक होकर, अनेक भवों में उपार्जित पाप-कर्मों से मुक्त होता जाता है,
और संवेगादि शुभ भावों से बढ़ता हुआ अनेक भवों की भाव-आराधना के द्वारा सर्वोत्तम यानी तीर्थङ्करादि का जन्म पाता है जो कि अचरम भव (मोक्ष) का हेतु होता है तथा सर्वोत्कृष्ट पुण्य समूह द्वारा संपूर्ण प्रधान परहित का संपादक बनता है। इस चरम भव में महासत्त्वों के लिए उचित समस्त कृत्य करके, और कर्म-रज को दूर करके सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बन जाता है, परिनिर्वाण प्राप्त करता है और समस्त दुःखों का अन्त करता है ॥११॥
॥चौथा प्रव्रज्या परिपालना सूत्र समाप्त ।।
जिसके भाव लेने के वह खोता है, जिसके भाव देने के वह पाता है। भाव है लेने के = खोना, भाव है देने के = पाना। गुरु एवं पिता के नाम पर चार चाँद लगाये वही शिष्य, वही पुत्र। नाम आयगा दान दिया-खोया। है तो देना ही है, दिया-पाया।
साधु ने तीर्थधाम बनाया-पाप, श्रावक ने तीर्थधाम बनाया पुण्य • कर्म से युद्ध करे नियतिवश हार भी जाय तो भी वीर।
मुनि मिष्टान्न खाने की इच्छा करे = पाप। स्वयं को अप्रिय आचरण दूसरों के प्रति करना-पाप। दो दो कहनेवाले दो प्रकार के, एक याचक, दूसरा दूसरे को देने
का कहनेवाला। • गर्भ में आनेवाला कहीं से मृत्यु पाकर ही आता है।
- जयानन्द
श्रामण्य नवनीत