Book Title: Sramanya Navneet
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ सम विविध रोग होते हैं और वे चिकित्सा से दूर भी होते हैं। मनुष्य के शरीर में विपर्यासता है वैसे वृक्षों में भी किसीके पत्र गिर जाते हैं, किसी की शाखा प्रशाखा टेढी हो जाती है। लकवा के समान वृक्ष सजीव होते हुए भी उसकी कोई शाखा सुख जाती है । बन्ध्या स्त्री सम किसी वृक्ष को फल लगते ही नहीं, वृक्ष की कितनी ही जातियों में नरमादा का भेद भी होता है । इत्यादि अनेक लक्षण मनुष्य सद्दश स्पष्ट दिखायी देते हैं। जन्म, बाल्यकाल, यौवन, वृद्धत्व, मरण, लज्जा, हर्ष, शोक, रोग, संज्ञा शीतादि अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्शो की असर इत्यादि जीवन की सिद्धि के अनेक प्रमाण वनस्पति में स्पष्ट हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी वनस्पति आदि एकेन्द्रिय में जीवत्व माना है। अन्य जीवों को किसी भी प्रकार का दुःख हो वैसी सभी प्रवृत्ति को दंड कहा गया है। उसे दंड से मुक्त होने हेतु सद्गुरु भगवंत उपदेश सुनावे तब शिष्य का कर्तव्य है कि उसका स्वीकार करे। वह स्वीकार जावज्जीव के लिए करना चाहिए। अतः मूल पाठ के 'करेमि' आदि पदों में वर्तमान काल का प्रयोग है वह भविष्यकाल के अर्थ में समझना अर्थात् आज से जीवन पर्यंत दंड के त्याग की प्रतिज्ञा समजनी । और सद्गुरु के आमंत्रण हेतु 'भंते' पद है । ' इससे प्रत्येक प्रतिज्ञा व्रत - नियमादि सद्गुरु के समक्ष लेना चाहिए' ऐसा दर्शाया है। त्रिविध-त्रिविध का अर्थ तीन योग द्वारा तीन प्रकार की क्रिया से दूर रहने का समझना। पूर्व पाप का प्रतिक्रमण अर्थात् निंदा अर्थात् आत्म साक्षी से किये हुए अशुभ कार्यों की प्रतिपक्ष वाली विचारणा, गर्हा अर्थात् सद्गुरु समक्ष पापों का स्वीकारकर उसका निरोध करना ऐसा भेद समझना । बहिरात्म भाव में रमणता कारक आत्मा को वोसिराता हूँ। इस प्रकार उन-उन शब्दों का वह वह अर्थ - भाव इसके बाद के सूत्रों में भी समझना । इस प्रकार पापों का प्रतिक्रमण, निंदा, गर्हा आदि करने से पाप की अनुमोदना रूक जाती है। इसलिए यह आचरणीय है। ऐसा न करने से 'अनिषिद्धं अनुमत' इस न्याय से अनिषेध से अनुमोदना द्वारा कर्मबंध चालु है। त्याग के अध्यवसाय के बिना प्रत्याख्यान निष्फल है ऐसा कहा गया है 'प्रत्येक प्रत्याख्यान उसके परिणाम पूर्वक करना चाहिए' ऐसा निश्चय नय के आधार से कहा जाता है। व्यवहार नय से भी उन-उन अध्यवसायों को प्रकट करने का ध्येय होना चाहिए। जिस क्रिया में अध्यवसाय न हो और उसको प्रकट करने का ध्येय भी न हो तो वह प्रत्याख्यान मृषावाद रूप है। क्रिया, धर्म के प्रयत्न-साधन रूप है और धर्म आत्मा के अध्यवसाय रूप है अतः अध्यवसाय या उसको प्रकट करने का ध्येय दोनों में से एक भी न हो तो क्रिया करते हुए भी धर्म नहीं कहा जाता । इन प्रत्येक सूत्रों में शिष्य प्रतिज्ञा करता है। इसका कारण यह है कि प्रतिज्ञा किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए आवश्यक तत्त्व है । दृढ़ संकल्प के बिना साध्य की श्रामण्य नवनीत ४९

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86